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परदेशी / रामधारी सिंह "दिनकर"

38 bytes added, 09:02, 25 दिसम्बर 2010
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी? 
भय है, सुन कर हँस दोगे मेरी नादानी परदेशी!
 
सृजन-बीच संहार छिपा, कैसे बतलाऊं परदेशी ?
 
सरल कंठ से विषम राग मैं कैसे गाऊँ परदेशी ?
 
एक बात है सत्य कि झर जाते हैं खिलकर फूल यहाँ,
 
जो अनुकूल वही बन जता दुर्दिन में प्रतिकूल यहाँ I
 
मैत्री के शीतल कानन में छिपा कपट का शूल यहाँ ,
 
कितने कीटों से सेवित है मानवता का मूल यहाँ ?
इस उपवन की पगडण्डी पर बचकर जाना परदेशी I
 
यहाँ मेनका की चितवन पर मत ललचाना परदेशी !
 
जगती में मादकता देखी, लेकिन अक्षय तत्त्व नहीं ,
 
आकर्षण में तृप्ति उर सुन्दरता में अमरत्व नहीं I
यहाँ प्रेम में मिली विकलता, जीवन में परितोष नहीं,
 
बाल-युवतियों के आलिंगन में पाया संतोष नहीं I
 
हमें प्रतीक्षा में न तृप्ति की मिली निशानी परदेशी !
 
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी ?
 
महाप्रलय की ओर सभी को इस मरू में चलते देखा ,
 
किस से लिपट जुडाता? सबको ज्वाला में जलते देखा I
 
अंतिम बार चिता-दीपक में जीवन को बलते देखा ;
 
चलत समय सिकंदर -से विजयी को कर मलते देखा I
 
सबने देकर प्राण मौत की कीमत जानी परदेशी I
 
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी ?
 
रोते जग की अनित्यता पर सभी विश्व को छोड़ चले,
 
कुछ तो चढ़े चिता के रथ पर , कुछ क़ब्रों की ओर चले I
 
रुके न पल-भर मित्र , पुत्र माता से नाता तोड़ चले,
 
लैला रोती रही किन्तु, कितने मजनू मुँह मोड़ चले I
 
जीवन का मधुमय उल्लास ,
 
औ' यौवन का हास विलास,
 
रूप-राशि का यह अभिमान,
 
एक स्वप्न है, स्वप्न अजान I
 
मिटता लोचन -राग यहाँ पर,
 
मुरझाती सुन्दरता प्यारी,
 
एक-एक कर उजड़ रही है
 
हरी-भरी कुसुमों की क्यारी I
 
मैं ना रुकूंगा इस भूतल पर
 
जीवन, यौवन, प्रेम गंवाकर ;
 
वायु, उड़ाकर ले चल मुझको
 
जहाँ-कहीं इस जग से बाहर
 
मरते कोमल वत्स यहाँ, बचती ना जवानी परदेशी !
 
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी ?
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