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Kavita Kosh से
बड़ी बैचेन रहती है किताबें
उन्हें अब निंद में चलने की आदत हो गई है
जो गज्लें वो सुनाती थी कि जिनके शल कभी गिरते नही थे
जो रिश्तें वो सुनाती थी वो सारे उधड़े उधड़े है
बिना पत्तों के सुखे टूंड लगते है वो अल्फाज
जिन पर अब कोई मानी उगते नही है
जबां पर जायका आता थो सफ्हें पलटने का
अब ऊंगली क्लिक करने से बस एक झपकी गुजरती है
बहोत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो जाती राब्ता था वो कट सा गया है
कभी सीनें पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
नीम सज्दें में पढ़ा करते थे
छूते थे जंबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो उन किताबों में मिला करते थे