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बचपन / नज़ीर अकबराबादी

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{{KKRachna
|रचनाकार=नज़ीर अकबराबादी
|संग्रह=नज़ीर ग्रन्थावली / नज़ीर अकबराबादी
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{{KKCatNazm}}<poem>
क्या दिन थे यारो वह भी थे जबकि भोले भाले ।
 
निकले थी दाई लेकर फिरते कभी ददा ले ।।
 
चोटी कोई रखा ले बद्धी कोई पिन्हा ले ।
 
हँसली गले में डाले मिन्नत कोई बढ़ा ले ।।
  मोटें हों या कि दुबले, गोरे हों या कि काले ।   क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।1।। 
दिल में किसी के हरगिज़ ने (न) शर्म ने हया है ।
आगा भी खुल रहा है,पीछा भी खुल रहा है ।।
पहनें फिरे तो क्या है, नंगे फिरे तो क्या है ।
याँ यूँ भी वाह वा है और वूँ भी वाह वा है ।।
कुछ खाले इस तरह से कुछ उस तरह से खाले । क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।2।। 
मर जावे कोई तो भी कुछ उनका ग़म न करना ।
 
ने जाने कुछ बिगड़ना, ने जाने कुछ संवरना ।।
उनकी बला से घर में हो क़ैद या कि घिरना ।
जिस बात पर यह मचले फिर वो ही कर गुज़रना।। गुज़रना ।। माँ ओढ़नी को, बाबा पगड़ी को बेच डाले । क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।3।। 
कोई चीज़ देवे नित हाथ ओटते हैं ।
गुड़, बेर, मूली, गाजर, ले मुंह मुँह में घोटते हैं ।। बाबा की मूंछ मूँछ माँ की चोटी खसोटते हैं ।
गर्दों में अट रहे हैं, ख़ाकों में लोटते हैं ।।
कुछ मिल गया सो पी लें, कुछ बन गया सो खालें । क्या ऐश लूटते हैं मासूम भोले भाले ।।4।। 
जो उनको दो सो खालें, फीका हो या सलोना ।
हैं बादशाह से बेहतर जब मिल गया खिलौना ।।
जिस जा पे नींद आई फिर वां ही उनको सोना ।
परवा न कुछ पलंग की ने चाहिए बिछौना ।। भोंपू कोई बजा ले, फिरकी कोई फिरा ले । क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।5।। 
ये बालेपन का यारो, आलम अजब बना है ।
यह उम्र वो है इसमें जो है सो बादशाह है।।
और सच अगर ये पूछो तो बादशाह भी क्या है।
अब तो ‘‘नज़ीर’’ मेरी सबको यही दुआ है ।
जीते रहें सभी के आसो-मुराद वाले । क्या ऐश लूटते हैं, मासूम भोले भाले ।।6।।</poem>
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