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| रचनाकार=सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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कोई भी चल न सका, साहिबे अफ़कार चले
राह वह तल्ख़ है जिस राह पे फ़नकार चले

क्या करे कोई मुक़द्दर में जो बनवास लिखा
छोड़ के अपना ही घर मालिको-मुख़तार चले

जिनसे उम्मीद थी साहिल पे लगा देंगे मुझे
छोड़ कर कश्ती, वही छोड़ के पतवार चले

जाम दो-चार उतरते ही गले से नीचे
झूमते झामते गाते हुए मयख्वार चले

कल गुलों से जो कहा करते थे बस दूर रहो
अपने दामन में समेटे हुए वह ख़ार चले

जो सियासत में कई बार हुए हैं नाकाम
ऐसे वुज़रा से भला किस तरह सरकार चले

जिन चराग़ों ने कहा था के जलेंगे शब भर
बुझ गए तेज़ हवाओं से, सभी हार चले

थक के मैं बैठ गया, थी अभी मंज़िल कुछ दूर
मुंतज़िर था के कोई काफ़िला उस पार चले

गुलशने-हुस्न में देखा है ये अक्सर ऐ 'रक़ीब'
पावं से रौंद के सब कलियों को ज़रदार चले
</POEM>
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