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सौ-सौ तरह के नाच दिखाती हैं रोटियाँ ।।12।।
रोटी के नाच तो हैं सभी ख़ल्क में बड़े ।
कुछ भाँड भगतिए ये नहीं फिरते नाचते ।।
ये रण्डियाँ जो नाचें हैं घूँघट को मुँह पे ले ।
घूँघट न जानो दोस्तो ! तुम जिनहार इसे ।।
उस पर्दे में ये अपनी कमाती हैं रोटियाँ ।।13।।
दुनिया में अब बदी न कहीं और निकोई है ।
ना दुश्मनी ना दोस्ती ना तुन्दखोई है ।।
कोई किसी का, और किसी का न कोई है ।
सब कोई है उसी का कि जिस हाथ डोई है ।।
नौकर नफ़र ग़ुलाम बनाती हैं रोटियाँ ।।17।।
रोटी का अब अज़ल से हमारा तो है ख़मीर ।
रूखी भी रोटी हक़ में हमारे है शहद-ओ-शीर ।।
या पतली होवे मोटी ख़मीरी हो या फ़तीर ।
गेहूँ, ज्वार, बाजरे की जैसी भी हो ‘नज़ीर‘ ।।
हमको तो सब तरह की ख़ुश आती हैं रोटियाँ ।।18।।
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