भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
कि दमक रहा है भारत, ज़ुल्म हैं इसमें कम ।
हो गया हूं हूँ मैं सयाना, अक्सर सोचता हूँ,
सिहर उठता हूँ, बाल अपने नोचता हूँ ।
फिर झटसे उठा सिर अपना, तानता हूं सीना,