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सरपंच के दरवाज़े के ऐन सामने गाँव के सभी जवान और बूढ़े आदमियों की मौज़ूदगी में
बिरादरी के मुखियों ने वह फ़ैसला सुनाया था...
 
जाने कब से गुपचुप बातें होती रही थीं
लगभग फुसफुसाहट में
जिनमें दरवाज़ों के पीछे खड़ी औरतों की फुसफसाहटें
भी शामिल थीं
धीमे-धीमे सिर हिलते थे
पर गुस्‍से या झल्‍लाहट में भी आवाज़ ऊँची न होती थी
मानो कोई साज़िश रची जा रही हो
हाँ, दो-एक आँखों से आँसू ढलके ज़रूर थे
जो तुरन्‍त ही किसी अनजान भय से पोंछ लिए गए थे
और रोने और सुननेवाले दोनों
दोहत्‍थी माथे पर ठोंकते थे
खुद को बरी कर
किस्‍मत को कोसते थे
फिर सिर हिलाते थे सुर में
 
उस शाम बच्‍चे
छोड़ दिए गए थे अपनी दुनिया में
देर रात खेलते रहे
छुआ-छुई, आँख-मिचौली, ऊँच-नीच और जाने क्‍या-क्‍या
क्‍या मज़ा था
आज कोई टोका-टोकी नहीं थी
यहॉं तक कि बछड़ो ने पूरा दूध पी लिया
पर बच्‍चे खेलते रहे अपनी ही धुन में
कोई बुलाता न था न खाने को न पढ़ने को
पर जब-जब खेलते बच्‍चे गए घर के भीतर
वह फुसफुसाहट एकदम गायब हो गई
और वे तुरन्‍त भेज दिए गए फिर से बाहर
जाने क्‍या बात थी
क्‍या कभी ऐसा होता है भला
कईयों ने दरवाजे के पीछे कान चिपकाए
या फिर भूख और नींद के बहाने घर में बैठ रहे
पर बेहया, इज्‍जत, भाग्‍य, मर्यादा जैसे
कुछ बेतुके शब्‍द सुनाई पड़े
जो कोई पूरी कहानी नहीं गढ़ते थे
 
उस रात शायद ही किसी घर में पूरी रसोई बनी
कइयों के पेट तो निन्दा-रस से भरे थे
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