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कुछ छोड़ जाना चाहते थे क़दमों के निशान
तो कुछ बन जाना चाहते थे धर्म, मर्यादा, संस्कृति की पहचान
 
कोई सो नहीं पाया उस रात
यहाँ तक कि देर रात उछल-कूद मचाते
बच्‍चे तक चौंक-चौंक उठे थे
कितनों ने बिस्‍तर तर किए
कितने झगड़े नींद में ही
कई सिसकियाँ भरते रहे रात भर
(कोई डरावना सपना देखते थे शायद)
 
उस रात गर्भस्थ शिशु भी हिलते-डुलते रहे बौखलाए से
और कुछ खामोश हो रहे
माँओं की आशंकाओं को बढ़ाते हुए
 
उस रात कुछ नौजवान दम साधे पड़े रहे
मानो उन पर कोई तलवार आ लटकी हो
उस रात किसी लड़की को पेशाब न लगी
उस रात कोई गाय रंभाई नहीं
बड़ी अजीब थी गर्मी की वह रात
सर्द एकदम सर्द…
 
उस दिन बड़ी देर तक सूरज नहीं उगा
भोर का तारा जाने कहाँ दुबक रहा
बस हवा चलती थी निरंकुश बादशाह-सी
हरहराती सब पर झपटने को तैयार
 
पर आख़िरकार वह समय आ ही गया
जिसे सुधीजन दिन कहते हैं
सभा जुटी सभी जन आए
कुछ सर उठाए तो कुछ कन्‍धे झुकाए
 
औरतों ने भी माँओं को घेर सरपंच की दालान में कब्‍जा जमाया
वैसे वो जगह कभी उनकी न थी और न रहेगी आइन्‍दा
पर उस दिन बात ही कुछ ऐसी थी
कि कोई यह न कहे कि उसे बताया न गया था
 
हाँ बच्‍चे भेज दिए गए चरवाहों के संग
आज कोई स्‍कूल न था
क्‍योंकि स्‍कूल तो घर होता है, मुहल्‍ला होता है, बिरादरी होती है
और गाथाएँ होती हैं
जिन्‍हें कुछ नादान बच्‍चे अपने शब्‍दों में पढ़ लेते हैं
और जाने कैसी अपनी गाथाएँ रचते हैं
बावजूद इसके कि सभी शब्‍दों पर हमने पहरेदार बिठा दिए हैं...
 
सो उस दिन पहरेदारों का जमावड़ा था
और उनके बीच बँधा खड़ा था एक नौजवान
जाने कहाँ खोया
जाने क्‍या सोचता
क्‍योंकि कभी उसके चेहरे पर एक सपनीली मुस्‍कान तैरती
जो उसकी आँखों में उगते सूरज का-सा प्रकाश भर जाती
चेहरा दीप्‍त हो उठता तृप्‍त शिशु-सा
होंठ सिकुड़ते मानो चूम रहे हों
सिर मस्‍ती में हिलने लगता
अनहद नाद सुनता हो मगन
पर तुरन्‍त ही
कुछ भी कर गुज़रने को तैयार
बाँहों की माँसपेशियाँ फड़कने लगतीं
गले की नसें तन जातीं
और वह हड़बड़ाकर देखने लगता इधर-उधर दीवाना-सा
 
"अब हड़बड़ा रहा है, दीवाना-सा"
यह पहरेदारों ने कहा था
पर इन शब्‍दों में न कोई करुणा थी
न प्रशंसा
और न ही दीवानगी को समझने का कोई बोध
सभा ने तो गरियाया ही था जी खोल
कवियों, शायरों, क़िताबों, मास्‍टरों, पीरों-फकीरों, रेडियो,
टी०वी० और सिनेमा को
माँ भी नहीं बख़्शी गई थी उस दिन
उसके दूध के खोट भी गिनाए गए थे उसी दिन
 
दालान के कोने में लड़की खौफ़ज़दा थी
छिटकी सहेलियाँ थीं
आँखों से ज्वाला बिखेरती
दाँत पीसती, दोहत्थी छाती पर मारती
 
सब कुछ बड़ा अजीब था
न तो लड़के ने कोई डाका डाला था
या फिर किसी बड़े का अपमान
बस किया था तो बस प्यार
उस बाहर खड़े लड़के से
जो सबसे जुदा था
सपनों की दुनिया रचनेवाला
मस्‍त और बेपरवाह
जिसके सामने पड़ते ही—
बोली कोयल-सी, आँखें हिरणी-सी,
चाल हंसिनी-सी हो जाती थी
खेतों पर बरसती धूप चाँदनी-सी लगती थी
और गोबर की डलिया फूलों से भर जाती थी
जिसके सामने पड़ते ही सब जग उजास हो उठता था
कोई पराया न लगता था और सभी का दुख अपना हो जाता था
 
कौन था वह, जो उसे इतना अपना लगता था
कि वह सभी के लिए इतना पराया हो गया
इतना पराया हो गया कि आज वह
दुश्‍मन-सा बँधा खड़ा था अपनी ही सभा में
अपने ही लोगों के बीच
वह इतना पराया हो गया कि उसके संग होने की
इच्‍छा भर से
वह भी उतनी ही पराई हो गई
माँ-बाप, माँ जाए भाई-बहन सभी से!
 
हॉं लड़की पराया धन ही होती है
पर साहूकार के घर के लिए सुरक्षित धन
प्रेम रचाने के लिए उत्‍सुक मन नहीं
पर यहाँ तो देह का आकर्षण खड़ा था साक्षात
सभा को तो देव का आकर्षण भी मंजूर न था
क्‍योंकि सभा जानती है
कि प्रेम देह से हो, या देव से
मनुष्‍य से हो या ईश्‍वर से संशयों से घिरा रहता है
साधना तलाशता है
समाज के बन्‍धनों को तोड़ता है
मर्यादाओं को लाँघता है...
 
पर माँ क्‍यों सुनाए थे तूने मीरा के भजन
कथा कही कई बार राधा-कृष्‍ण की
मास्‍टर जी क्‍यों पढ़ने को दी थी पोथी शीरीं-फरहाद की
और दीदी तू भी तो रोई थी लैला-मजनू का सिनेमा देखते-देखते
 
और आज तुम सब दूर खड़े हो
जकड़ दिया है तुमने मुझे रस्सियों से
यह सोचते-सोचते लड़की को
प्रियतम की पकड़ याद आई
वह कलाई पे पकड़
और आलिंगन की जकड़
जिसे छुड़ा कर वह भाग जाना चाहती थी
और उसमें बँधी भी रहना चाहती थी
ज़िन्‍दगी-भर
 
चाहत की कैसी दुनिया
आह! वह जी लेना चाहती है, वे क्षण एक बार फिर
एक बार फिर सहलाना चाहती है उस सुन्‍दर मुख को
सँवरे बालों को खेल-खेल में बिखेर देना चाहती है
लज्‍जा से बचने के लिए भी उन आँखों को चूम लेना चाहती है
जो उसे देखते हुए झपकना भी भूल जाती हैं
एक बार वह दौड़कर उन बाहों में समा जाना चाहती है
बाँध लेना चाहती है उस गठीली देह को आलिंगन में...
 
ओह ! कितना दर्द है पीठ पीछे बँधी कलाइयों और पैरों में
ऐसे तो जिबह करने वाले जानवर भी नहीं बाँधे जाते, माँ
और तुमने बाँध दिया ख़ुद अपनी जाई को अपने हाथों
तो कभी रुतबे की खाई को लाँघ
तो कभी धर्म की दीवार के पार ।
 
पर क्‍या मन का लग जाना ही
सबसे बड़ा अपराध नहीं क्‍या, कभी भी कहीं भी
लैला-मजनूँ से लेकर
रोमियों जुलियट तक
और इन तमाम जन्‍मों में
कभी मैं रोशनी कहलाई, तो कभी पिपरी गाँव में जन्‍मी
पर सभी जन्‍मों में
हमने प्रेम…बस प्रेम को जीया
मर्यादा के नाश का
संस्कारों के ह्रास का
 
पर इन नियमों से समाज तो नहीं चलता
 
तो समाज के हित में
फैसला सुनाया मुखियों ने:
 
ऐसी मजाल जो व्‍यक्ति करे मनमानी
लटका दो इन्‍हें फाँसी पर
ताकि समझ लें अंजाम सभी
वे भी
जो आएँगे कल इस धरा पर
प्रेम का, मनमानी का
मर्यादा के नाश का
संस्‍कारों के ह्रास का !
तो सदल-बल सभी लटका आए उन मासूमों को गाँव के पार
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