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|रचनाकार=एहतराम इस्लाम
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आखों में भडकती हैं आक्रोश की ज्वालाएं
हं लांघ गए शायद संतोष की सीमाएं

पग पग पे प्रतिस्थित हैं पथ भ्रस्त दुराचारी
इस नक़्शे में हम खुद को किस बिंदु पे दर्शायें

अनुभूति की दुनिया में भूकंप सा आया है
आधार न खो बैठें निष्ठाएं प्रतिष्ठाएं

बासों का घना जंगल कुछ काम न आएगा
हाँ खेल दिखा देंगी कुछ अग्नि शलाकाएँ

सीने से धुँआ उठना कब बांड हुआ कहिये
कहने को बदलती ही रहती हैं व्यवस्थाए

वीरानी बिछा दी है मौसम के बुढापे ने
कुछ गुल न खिला डाले यौवन की निराशाएं

तस्वीर दिखानी है भारत की तो दिखला दो
कुछ तैरती पतवारें कुछ डूबती नौकाएं
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