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|रचनाकार=एहतराम इस्लाम
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<poem>

जमी पर खेल कैसा हो रहा है
समूचा दौर अंधा हो रहा है

कहाँ कोशिश गई बेकार अपनी
जो पत्थर था वो शीशा हो रहा है


न रोके रुक सकेगी अब तबाही
की पानी सर से ऊँचा हो रहा है

घरों में कैद लोगों आओ देखो
सड़क पर क्या तमाशा हो रहा है

ठिकाने लग रहा है जोश सबका
हमारा जोश ठण्ढा हो रहा है

जजाल वालों के हातोह ही गजब है
गज़ल के साथ धोखा हो रहा है

मिलेगा एहतराम अपने नगर में
तुम्हें ये वहम कैसा हो रहा है

</poem>