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{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-१
|संग्रह=आमीन / आलोक श्रीवास्तव-१
}}
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<poem>
वो दौर दिखा जिसमें इन्सान की ख़ूशबू हो
अन्सान की आखों में ईमान की खुशबू हो
पाकीजा अजाओं में मीरा के भजन गूंजें
नौ दिन के उपासन में रमजान की खुशबू हो
मैं उसमें नज़र आऊ वो मुझमें नज़र आये
इस जान की खुशबू में उस जान की खुशबू हो
मस्जिद की फिजाओं में महकार हो चन्दन की
मंदिर की फिजाओं में लोबान की खुशबू हो
हम लोग भी फिर ऐसे बेनाम कहाँ होंगे
हममें भी अगर तेरी पहचान की खुशबू हो
</poem>
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|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-१
|संग्रह=आमीन / आलोक श्रीवास्तव-१
}}
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<poem>
वो दौर दिखा जिसमें इन्सान की ख़ूशबू हो
अन्सान की आखों में ईमान की खुशबू हो
पाकीजा अजाओं में मीरा के भजन गूंजें
नौ दिन के उपासन में रमजान की खुशबू हो
मैं उसमें नज़र आऊ वो मुझमें नज़र आये
इस जान की खुशबू में उस जान की खुशबू हो
मस्जिद की फिजाओं में महकार हो चन्दन की
मंदिर की फिजाओं में लोबान की खुशबू हो
हम लोग भी फिर ऐसे बेनाम कहाँ होंगे
हममें भी अगर तेरी पहचान की खुशबू हो
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