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|रचनाकार = लीलाधर जगूड़ी
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मैं वह ऊँचा नहीं जो मात्र ऊँचाई पर होता है
कवि हूँ और पतन के अंतिम बिंदु तक पीछा करता हूँ
हर ऊँचाई पर दबी दिखती है मुझे ऊँचाई की पूँछ
लगता है थोड़ी सी ऊँचाई और होनी चाहिए थी
मैं वह ऊंचा नहीं जो मात्र ऊंचाई पृथ्वी की मोटाई समुद्रतल की ऊँचाई हैलेकिन समुद्रतल से हर कोई ऊँचा होना चाहता हैपानी भी, उसकी लहर भीयहाँ तक कि घास भी और किनारे पर होता पड़ी रेत भीकोई जल से कोई थल से कोई निश्छल से भी ऊँचा उठना चाहता है<br>छल सेकवि हूं जल बादलों तकथल शिखरों तकशिखर भी और पतन ऊँचा होने के अंतिम बिंदु तक पीछा करता हूं<br>लिएहर ऊंचाई पर दबी दिखती पेड़ों की ऊँचाई को अपने में शामिल कर लेता है मुझे ऊंचाई और बर्फ़ की पूंछ<br>ऊँचाई भीलगता है थोड़ी सी ऊंचाई और होनी चाहिए थी<br><br>जहाँ दोनों नहीं, वहाँ वह घास की ऊँचाई भीअपनी बताता है
पृथ्वी की मोटाई समुद्रतल की ऊंचाई है<br>लेकिन समुद्रतल से हर कोई ऊंचा होना चाहता है<br>पानी भी, उसकी लहर भी<br>यहां तक कि घास भी और किनारे पर पड़ी रेत भी<br>कोई जल से कोई थल से कोई निश्छल से भी ऊंचा उठना चाहता है छल से<br>जल बादलों तक<br>थल शिखरों तक<br>शिखर भी और ऊंचा होने के लिए<br>पेड़ों की ऊंचाई को अपने में शामिल कर लेता है<br>और बर्फ़ की ऊंचाई भी<br>और जहां दोनों नहीं, वहां वह घास की ऊंचाई भी<br>अपनी बताता है<br><br> ऊंचा ऊँचा तो ऊंचा ऊँचा सुनेगा, ऊंचा ऊँचा समझेगा<br>आंख आँख उठाकर देखेगा भी तो सवाए या दूने को<br>लेकिन चौगुने सौ गुने ऊंचा ऊँचा हो जाने के बाद भी<br>ऊंचाई ऊँचाई है कि हर बार बची रह जाती हैछूने को ।<br/poem>छूने को।
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