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Kavita Kosh से
दिन-ब-दिन घाव गहरे हुए
पीर के पल सुनहरे हुए
स्वार्थवश लोग अंधे बने
स्वार्थवशलोग बहरे हुए एक से काम चलता न थाउनके चेहरों पे चेहरे हुए तन को बंधक बनाने के बादरूप के मन पे पहरे हुए अच्छे दिखते हैं झंडे तभीजब निकलते हैं फहरे हुए भीड़ चलती है चींटी की चाललोग लगते हैं ठहरे हुए शेर अख़बार पढ़कर...कहेकथ्य यूँ भी इकहरे हुए !
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