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छा लेंगे हम बनकर गान।
पर, हूँ विवश, गन गान से कैसे
जग को हाय ! जगाऊँ मैं,
इस तमिस्त्र युग-बीच ज्योति की
वे गायन, जिनके न आज तक
गाकर सिरा सका जल-थल ,
जिनकी तान-तान पर आकुल
सिहर-सिहर उठता उडु-दल।
आज सरित का कल-कल, छल-छल,
निर्झर का अविरल झर-झर,पावस की बूँदों की रिम-झिम
पीले पत्तों का मर्मर,
भर दो ये मधु-स्वर चुन चुन।
दो आदेसआदेश, फूँक दूँ श्रृंगी,
उठें प्रभाती-राग महान,
तीनों काल ध्वनित हो स्वर में
सूर-सूर तुलसी-शशि जिसकी
विभा यहाँ फैलाते हैं,
जिसके बुझे कणों को पा कविअब ख्द्योत खद्योत कहाते हैं;
उसकी विभा प्रीप्त प्रदीप्त करे
मेरे उर का कोना-कोना
छू दे यदि लेखनी, धूल भी