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मिथिला / रामधारी सिंह "दिनकर"

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'''मिथिला'''

मैं पतझड़ की कोयल उदास,
बिखरे वैभव की रानी हूँ
मैं हरी-भरी हिम-शैल-तटी
की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।

::अपनी माँ की मैं वाम भृकुटि,
::गरिमा की हूँ धूमिल छाया,
::मैं विकल सांध्य रागिनी करुण,
::मैं मुरझी सुषमा की माया।

मैं क्षीणप्रभा, मैं हत-आभा,
सम्प्रति, भिखारिणी मतवाली,
खँडहर में खोज रही अपने
उजड़े सुहाग की हूँ लाली।

::मैं जनक कपिल की पुण्य-जननि,
::मेरे पुत्रों का महा ज्ञान ।
::मेरी सीता ने दिया विश्व
::की रमणी को आदर्श-दान।

मैं वैशाली के आसपास
बैठी नित खँडहर में अजान,
सुनती हूँ साश्रु नयन अपने
लिच्छवि-वीरों के कीर्ति-गान।

::नीरव निशि में गंडकी विमल
::कर देती मेरे विकल प्राण,
::मैं खड़ी तीर पर सुनती हूँ
::विद्यापति-कवि के मधुर गान।

नीलम-घन गरज-गरज बरसें
रिमझिम-रिमझिम-रिमझिम अथोर,
लहरें गाती हैं मधु-विहाग,
‘हे, हे सखि ! हमर दुखक न ओर ।’

::चांदनी-बीच धन-खेतों में
::हरियाली बन लहराती हूँ,
::आती कुछ सुधि, पगली दौड़ो
::मैं कपिलवस्तु को जाती हूँ।

बिखरी लट, आँसू छलक रहे,
मैं फिरती हूँ मारी-मारी ।
कण-कण में खोज रही अपनी
खोई अनन्त निधियाँ सारी।

::मैं उजड़े उपवन की मालिन,
::उठती मेरे हिय विषम हूख,
::कोकिला नहीं, इस कुंज-बीच
::रह-रह अतीत-सुधि रही कूक।

मैं पतझड़ की कोयल उदास,
बिखरे वैभव की रानी हूँ,
मैं हरी-भरी हिमशैल-तटी
की विस्मृत स्वप्न-कहानी हूँ।

१९३४



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