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{{KKRachna
|रचनाकार=दिनकर
}}
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<poem>
'''मिथिला में शरत्'''
किस स्वप्न-लोक से छवि उतरी?
::ऊपर निरभ्र नभ नील-नील,
::नीचे घन-विम्बित झील-झील।
::उत्तर किरीट पर कनक-किरण,
::पद-तल मन्दाकिनि रजत-वरण।
:::::छलकी कण-कण में दिव्य सुधा,
:::::बन रही स्वर्ग मिथिला-वसुधा।
::तन की साड़ी-द्युति सघन श्याम
::तरु, लता, धान, दूर्वा ललाम।
::दायें कोशल ले अर्ध्य खड़ा,
::आरती बंग ले वाम-वाम।
::दूबों से लेकर बाँसों तक,
::गृह-लता, सरित-तट कासों तक,
::हिल रही पवन में हरियाली;
::वसुधा ने कौन सुधा पा ली?
:::::गाती धनखेतों -बीच परी,
:::::किस स्वप्न-लोक से छवि उतरी?
::क्या शरत्-निशा की बात कहूँ?
::जो कुछ देखा था रात, कहूँ?
::निर्मल ऋतु की मुख-भरी हँसी,
::चाँदनी विसुध भू आन खसी;
:::::मदरसा, विकल, मदमाती-सी,
:::::अपने सुख में न समाती-सी।
::गंडकी सुप्त थी रेतों में,
::पंछी चुप नीड़-निकेतों में;
::‘चुप-चुप’ थी शान्ति सभी घर में;
::चाँदनी सजग थी जग-भर में,
:::::हाँ, कम्प जरा हरियाली में,
:::::थी आहट कुछ वैशाली में।
::इतने में (उफ़! कविता उमड़ी)
::खँडहर से निकली एक परी;
::गंडकी-कूल खेतों में आ
::हरियाली में हो गई खड़ी।
:::::लट खुली हुई लहराती थी,
:::::मुख पर आवरण बनाती थी;
::सपनों में भूल रहा मन था,
::उन्मन दृग में सूनापन था।
::धानी दुकूल गिर धानों पर
::मंजरी-साथ कुछ रहा लहर।
:::::लम्बी बाँहें गोरी-गोरी
:::::उँगलियाँ रूप-रस में बोरी।
::कर कभी धान का आलिङ्गन
::लेती मंजरियों का चुम्बन।
::गंडकी-ओर फिर दृष्टि फेर
::देखती लहर को बड़ी देर।
:::::हेरती मर्म की आँखों से
:::::वह कपिलवस्तु-दिशि बेर-बेर।
::शारद निशि की शोभा विशाल,
::जगती, ज्योत्स्ना का स्वर्ण-ताल,
::श्यामल, शुभ शस्यों का प्रसार,
::गंडक, मिथिला का कंठहार।
::चन्द्रिका-धौत बालुका-कूल,
::कंपित कासों के श्वेत फूल;
:::::वह देख-देख हर्षाती है,
:::::कुछ छिगुन-छिगुन रह जाती है।
::मिथिला विमुक्त कर हृदय-द्वार
::है लुटा रही सौन्दर्य प्यार;
::कोई विद्यापति क्यों न आज
::चित्रित कर दे छवि गान-व्याज?
::कोई कविता मधु-लास-मयी,
::अविछिन्न, अनन्त विलास-मयी,
::चाँदनी धुली पी हरियाली
::बनती न हाय, क्यों मतवाली?
:::::शेखर की याद सताती है,
:::::वह छिगुन-छिगुन रह जाती है।
::मैं नहीं चाहता चिर-वसन्त,
::जूही-गुलाब की छवि अनन्त;
::ग्रीष्म हो, तरु की छाँह रहे;
::पावस हो, प्रिय की बाँह रहे;
:::::हो शीत या कि ऊष्मा जवलन्त,
:::::मेरे गृह में अक्षय वसन्त।
::औ’शरत्, अभी भी क्या गम है?
::तू ही वसन्त से क्या कम है?
::है बिछी दूर तक दूब हरी,
::हरियाली ओढ़े लता खड़ी।
::कासों के हिलते श्वेत फूल,
::फूली छतरी ताने बबूल;
:::::अब भी लजवन्ती झीनी है,
:::::मंजरी बेर रस-भीनी है।
::कोयल न (रात वह भी कूकी,
::तुझपर रीझी, वंशी फूँकी।)
::कोयल न, कीर तो बोले हैं,
::कुररी-मैना रस घोले हैं;
:::::कवियों की उपमा की आँखें;
:::::खंजन फड़काती है पाँखें।
::रजनी बरसाती ओस ढेर,
::देती भू पर मोती बिखेर;
::नभ नील, स्वच्छ, सुन्दर तड़ाग;
::तू शरत् न, शुचिता का सुहाग।
::औ’ शरत्-गंग! लेखनी, आह!
::शुचिता का यह निर्मल प्रवाह;
:::::पल-भर निमग्न इसमें हो ले,
:::::वरदान माँग, किल्विष धो ले।
::गिरिराज-सुता सुषमा-भरिता,
::जल-स्त्रोत नहीं, कविता-सरिता।
::वह कोमल कास-विकासमयी,
::यह बालिका पावन हासमयी;
:::::वह पुण्य-विकासिनि, दिव्य-विभा,
:::::यह भाव-सुहासिनि, प्रेम-प्रभा।
::हे जन्मभूमि! शत बार धन्य!
::तुझ-सा न ‘सिमरियाघाट’ अन्य।
::तेरे खेतों की छवि महान,
::अनिमन्त्रित आ उर में अजान,
:::::भावुकता बन लहराती है,
:::::फिर उमड़ गीत बन जाती है।
::‘बाया’ की यह कृश विमल धार,
::गंगा की यह दुर्गम कछार,
::कूलों पर कास-परी फूली,
::दो-दो नदियाँ तुझपर भूलीं।
:::::कल-कल कर प्यार जताती हैं,
:::::छू पार्श्व सरकती जाती है।
::शारद सन्ध्या, यह उगा सोम,
::बन गया सरित में एक व्योम,
::शेखर-उर में अब बिंधें बाण,
::सुन्दरियाँ यह कर रहीं स्नान।
::आग्रीव वारि के बीच खड़ी,
::या रही मधुर प्रत्येक परी।
:::::बिछली पड़तीं किरणें जल पर,
:::::नाचती लहर पर स्वर-लहरी।
::यह वारि-वेलि फैली अमूल,
::खिल गये अनेकों कंज-फूल;
::लट नहीं, मुग्ध अलिवृन्द श्याम
::कंजों की छवि पर रहे भूल।
::डुबकी रमणियाँ लगाती हैं,
::लट ऊपर ही लहराती हैं,
:::::जल-मग्न कमल को खोज-खोज
:::::मधुपावलियाँ मँडराती हैं।
::लेकिन नालों पर कंज कहाँ,
::ऐसे, जैसे ये खिले यहाँ?
::नीचे आने विधु ललक रहा,
::मृदु चूम परी की पलक रहा;
:::::वह स्वर्ग-बीच ललचाता है,
:::::भू पर रस-प्याला छलक रहा।
::परियाँ अब जल से चलीं निकल
::तन से लिपटे भींगे अंचल;
::चू रही चिकुर से वारि-धार,
::मुख-शशि-भय रोता अन्धकार।
:::::विद्यापति! सिक्त वसन तन में,
:::::मन्मथ जाते न मुनी-मन में।
::कवि! शरत्-निशा का प्रथम प्रहर,
::कल्पना तुम्हारी उठी लहर,
::कविता कुछ लोट रही तट में,
::लिपटी कुछ सिक्त परी-पट में;
:::::कुछ मैं स्वर में दुहराता हूँ;
:::::निज कविता मधुर बचाता हूँ।
::गंगा-पूजन का साज सजा,
::कल कंठ-कंठ में तार बजा;
::स्वर्गिक उल्लास उमंग यहाँ;
::पट में सुर-धनु के रंग यहाँ,
::तुलसी-दल-सा परिपूत हृदय,
::अति पावन पुण्य-प्रसंग यहाँ।
:::::तितलियाँ प्रदीप जलाती हैं,
:::::शेखर की कविता गाती हैं।
:::::गंगे! ये दीप नहीं बलते,
:::::लघु पुण्य-प्रभा-कण हैं जलते;
:::::अन्तर की यह उजियारी है;
:::::भावों की यह चिनगारी है।
१९३४
</poem>
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'''मिथिला में शरत्'''
किस स्वप्न-लोक से छवि उतरी?
::ऊपर निरभ्र नभ नील-नील,
::नीचे घन-विम्बित झील-झील।
::उत्तर किरीट पर कनक-किरण,
::पद-तल मन्दाकिनि रजत-वरण।
:::::छलकी कण-कण में दिव्य सुधा,
:::::बन रही स्वर्ग मिथिला-वसुधा।
::तन की साड़ी-द्युति सघन श्याम
::तरु, लता, धान, दूर्वा ललाम।
::दायें कोशल ले अर्ध्य खड़ा,
::आरती बंग ले वाम-वाम।
::दूबों से लेकर बाँसों तक,
::गृह-लता, सरित-तट कासों तक,
::हिल रही पवन में हरियाली;
::वसुधा ने कौन सुधा पा ली?
:::::गाती धनखेतों -बीच परी,
:::::किस स्वप्न-लोक से छवि उतरी?
::क्या शरत्-निशा की बात कहूँ?
::जो कुछ देखा था रात, कहूँ?
::निर्मल ऋतु की मुख-भरी हँसी,
::चाँदनी विसुध भू आन खसी;
:::::मदरसा, विकल, मदमाती-सी,
:::::अपने सुख में न समाती-सी।
::गंडकी सुप्त थी रेतों में,
::पंछी चुप नीड़-निकेतों में;
::‘चुप-चुप’ थी शान्ति सभी घर में;
::चाँदनी सजग थी जग-भर में,
:::::हाँ, कम्प जरा हरियाली में,
:::::थी आहट कुछ वैशाली में।
::इतने में (उफ़! कविता उमड़ी)
::खँडहर से निकली एक परी;
::गंडकी-कूल खेतों में आ
::हरियाली में हो गई खड़ी।
:::::लट खुली हुई लहराती थी,
:::::मुख पर आवरण बनाती थी;
::सपनों में भूल रहा मन था,
::उन्मन दृग में सूनापन था।
::धानी दुकूल गिर धानों पर
::मंजरी-साथ कुछ रहा लहर।
:::::लम्बी बाँहें गोरी-गोरी
:::::उँगलियाँ रूप-रस में बोरी।
::कर कभी धान का आलिङ्गन
::लेती मंजरियों का चुम्बन।
::गंडकी-ओर फिर दृष्टि फेर
::देखती लहर को बड़ी देर।
:::::हेरती मर्म की आँखों से
:::::वह कपिलवस्तु-दिशि बेर-बेर।
::शारद निशि की शोभा विशाल,
::जगती, ज्योत्स्ना का स्वर्ण-ताल,
::श्यामल, शुभ शस्यों का प्रसार,
::गंडक, मिथिला का कंठहार।
::चन्द्रिका-धौत बालुका-कूल,
::कंपित कासों के श्वेत फूल;
:::::वह देख-देख हर्षाती है,
:::::कुछ छिगुन-छिगुन रह जाती है।
::मिथिला विमुक्त कर हृदय-द्वार
::है लुटा रही सौन्दर्य प्यार;
::कोई विद्यापति क्यों न आज
::चित्रित कर दे छवि गान-व्याज?
::कोई कविता मधु-लास-मयी,
::अविछिन्न, अनन्त विलास-मयी,
::चाँदनी धुली पी हरियाली
::बनती न हाय, क्यों मतवाली?
:::::शेखर की याद सताती है,
:::::वह छिगुन-छिगुन रह जाती है।
::मैं नहीं चाहता चिर-वसन्त,
::जूही-गुलाब की छवि अनन्त;
::ग्रीष्म हो, तरु की छाँह रहे;
::पावस हो, प्रिय की बाँह रहे;
:::::हो शीत या कि ऊष्मा जवलन्त,
:::::मेरे गृह में अक्षय वसन्त।
::औ’शरत्, अभी भी क्या गम है?
::तू ही वसन्त से क्या कम है?
::है बिछी दूर तक दूब हरी,
::हरियाली ओढ़े लता खड़ी।
::कासों के हिलते श्वेत फूल,
::फूली छतरी ताने बबूल;
:::::अब भी लजवन्ती झीनी है,
:::::मंजरी बेर रस-भीनी है।
::कोयल न (रात वह भी कूकी,
::तुझपर रीझी, वंशी फूँकी।)
::कोयल न, कीर तो बोले हैं,
::कुररी-मैना रस घोले हैं;
:::::कवियों की उपमा की आँखें;
:::::खंजन फड़काती है पाँखें।
::रजनी बरसाती ओस ढेर,
::देती भू पर मोती बिखेर;
::नभ नील, स्वच्छ, सुन्दर तड़ाग;
::तू शरत् न, शुचिता का सुहाग।
::औ’ शरत्-गंग! लेखनी, आह!
::शुचिता का यह निर्मल प्रवाह;
:::::पल-भर निमग्न इसमें हो ले,
:::::वरदान माँग, किल्विष धो ले।
::गिरिराज-सुता सुषमा-भरिता,
::जल-स्त्रोत नहीं, कविता-सरिता।
::वह कोमल कास-विकासमयी,
::यह बालिका पावन हासमयी;
:::::वह पुण्य-विकासिनि, दिव्य-विभा,
:::::यह भाव-सुहासिनि, प्रेम-प्रभा।
::हे जन्मभूमि! शत बार धन्य!
::तुझ-सा न ‘सिमरियाघाट’ अन्य।
::तेरे खेतों की छवि महान,
::अनिमन्त्रित आ उर में अजान,
:::::भावुकता बन लहराती है,
:::::फिर उमड़ गीत बन जाती है।
::‘बाया’ की यह कृश विमल धार,
::गंगा की यह दुर्गम कछार,
::कूलों पर कास-परी फूली,
::दो-दो नदियाँ तुझपर भूलीं।
:::::कल-कल कर प्यार जताती हैं,
:::::छू पार्श्व सरकती जाती है।
::शारद सन्ध्या, यह उगा सोम,
::बन गया सरित में एक व्योम,
::शेखर-उर में अब बिंधें बाण,
::सुन्दरियाँ यह कर रहीं स्नान।
::आग्रीव वारि के बीच खड़ी,
::या रही मधुर प्रत्येक परी।
:::::बिछली पड़तीं किरणें जल पर,
:::::नाचती लहर पर स्वर-लहरी।
::यह वारि-वेलि फैली अमूल,
::खिल गये अनेकों कंज-फूल;
::लट नहीं, मुग्ध अलिवृन्द श्याम
::कंजों की छवि पर रहे भूल।
::डुबकी रमणियाँ लगाती हैं,
::लट ऊपर ही लहराती हैं,
:::::जल-मग्न कमल को खोज-खोज
:::::मधुपावलियाँ मँडराती हैं।
::लेकिन नालों पर कंज कहाँ,
::ऐसे, जैसे ये खिले यहाँ?
::नीचे आने विधु ललक रहा,
::मृदु चूम परी की पलक रहा;
:::::वह स्वर्ग-बीच ललचाता है,
:::::भू पर रस-प्याला छलक रहा।
::परियाँ अब जल से चलीं निकल
::तन से लिपटे भींगे अंचल;
::चू रही चिकुर से वारि-धार,
::मुख-शशि-भय रोता अन्धकार।
:::::विद्यापति! सिक्त वसन तन में,
:::::मन्मथ जाते न मुनी-मन में।
::कवि! शरत्-निशा का प्रथम प्रहर,
::कल्पना तुम्हारी उठी लहर,
::कविता कुछ लोट रही तट में,
::लिपटी कुछ सिक्त परी-पट में;
:::::कुछ मैं स्वर में दुहराता हूँ;
:::::निज कविता मधुर बचाता हूँ।
::गंगा-पूजन का साज सजा,
::कल कंठ-कंठ में तार बजा;
::स्वर्गिक उल्लास उमंग यहाँ;
::पट में सुर-धनु के रंग यहाँ,
::तुलसी-दल-सा परिपूत हृदय,
::अति पावन पुण्य-प्रसंग यहाँ।
:::::तितलियाँ प्रदीप जलाती हैं,
:::::शेखर की कविता गाती हैं।
:::::गंगे! ये दीप नहीं बलते,
:::::लघु पुण्य-प्रभा-कण हैं जलते;
:::::अन्तर की यह उजियारी है;
:::::भावों की यह चिनगारी है।
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