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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मयंक अवस्थी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> आँखों में बस गय…
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{{KKRachna
|रचनाकार=मयंक अवस्थी
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
आँखों में बस गया कोई बाँहों से दूर है
चाहा है चाँद को यही अपना क़ुसूर है
दोज़ख में जी रहा हूँ इसी एक आस पे
जन्नत को रास्ता कोई जाता ज़रूर है
क्या जानिये वो शोख़ समन्दर है या सराब
जो भी हो तिश्नगी का सहारा ज़रूर है
आलम में देखिये तो कोई भी खुदा नहीं
आलम ख़ुदा की सम्त इशारा ज़रूर है
देखें तो मुश्ते –खाक है आबे–रवाँ में आप
फिर क्या है जिसपे आपको इतना ग़ुरूर है
यूँ दिल का दाग़ रोशनी देता है रात भर
लगता है मेरे पास कोई कोहनूर है
मैं लड़्खड़ा रहा हूँ सच की शाहराह पे
इस रूह पे अभी भी बदन का सुरूर है
</poem>
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|रचनाकार=मयंक अवस्थी
|संग्रह=
}}
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आँखों में बस गया कोई बाँहों से दूर है
चाहा है चाँद को यही अपना क़ुसूर है
दोज़ख में जी रहा हूँ इसी एक आस पे
जन्नत को रास्ता कोई जाता ज़रूर है
क्या जानिये वो शोख़ समन्दर है या सराब
जो भी हो तिश्नगी का सहारा ज़रूर है
आलम में देखिये तो कोई भी खुदा नहीं
आलम ख़ुदा की सम्त इशारा ज़रूर है
देखें तो मुश्ते –खाक है आबे–रवाँ में आप
फिर क्या है जिसपे आपको इतना ग़ुरूर है
यूँ दिल का दाग़ रोशनी देता है रात भर
लगता है मेरे पास कोई कोहनूर है
मैं लड़्खड़ा रहा हूँ सच की शाहराह पे
इस रूह पे अभी भी बदन का सुरूर है
</poem>