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नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मयंक अवस्थी |संग्रह= }} {{KKCatGhazal}} <poem> वो सुकूँ है जब…
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{{KKRachna
|रचनाकार=मयंक अवस्थी
|संग्रह=
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
वो सुकूँ है जबसे निकला हूँ उमस भरे मकाँ से
मुझे गर्म लू के झोंके भी लगे हैं सायबाँ से
ये तमाम उम्र गुज़री बड़े सख्त इम्तिहाँ से
न थी खुदकुशी की ताक़त न ही लड़ सके जहाँ से
शबे-ग़म की ज़ुल्मतों में ये ज़मीन मुतमईन थी
कभी आयेगा उतरकर कोई नूर कहकशाँ से
मैं शिकस्त दे चुका था कभी बहरे- बेकराँ को
मैं शिकस्त खा गया हूं किसी अश्के- बेज़ुबाँ से
मेरी शाइरी से हँसकर कहा दर्द ने चमक कर
कोई धूप भी तो निकली तेरे ग़म के आसमां से
ओ चमन की ख़ाक पाँओं में भी बिछ के मिल सका क्या
कोई प्यार इन गुलों से कोई रब्त बागबाँ से
</poem>
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|रचनाकार=मयंक अवस्थी
|संग्रह=
}}
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वो सुकूँ है जबसे निकला हूँ उमस भरे मकाँ से
मुझे गर्म लू के झोंके भी लगे हैं सायबाँ से
ये तमाम उम्र गुज़री बड़े सख्त इम्तिहाँ से
न थी खुदकुशी की ताक़त न ही लड़ सके जहाँ से
शबे-ग़म की ज़ुल्मतों में ये ज़मीन मुतमईन थी
कभी आयेगा उतरकर कोई नूर कहकशाँ से
मैं शिकस्त दे चुका था कभी बहरे- बेकराँ को
मैं शिकस्त खा गया हूं किसी अश्के- बेज़ुबाँ से
मेरी शाइरी से हँसकर कहा दर्द ने चमक कर
कोई धूप भी तो निकली तेरे ग़म के आसमां से
ओ चमन की ख़ाक पाँओं में भी बिछ के मिल सका क्या
कोई प्यार इन गुलों से कोई रब्त बागबाँ से
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