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07:19, 25 फ़रवरी 2011 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=दिनकर
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<poem>
'''विश्व-छवि'''
मैं तुझे रोकता हूँ पल-पल, तू और खिंचा-सा जाता है,
मन, जिसे समझता तू सुन्दर, उस जग से कब का नाता है?
कुछ विस्मृत-सा परिचय है क्या जिससे बढ़ता है प्यार?
कण-कण में कौन छिपा अपना जो मुझको रहा पुकार?
::मघुर कैसी है यह नगरी!
::धन्य री जगत पुलक-भरी!
::चन्द्रिका-पट का कर परिधान,
::सजा नक्षत्रों से शृंगार,
::प्रकृति पुलकाकुल आँखें खोल
::देखती निज सुवर्ण-संसार।
::चमकते तरु पर झिलमिल फूल,
::बौर जाता है कभी रसाल,
::अंक में लेकर नीलाकाश
::कभी दर्पण बन जाता ताल।
::चहकती चित्रित मैना कहीं,
::कहीं उड़ती कुसुमों की धूल,
::चपल तितली सुकुमारी कहीं
::दीखती, फुदक रहे ज्यों फूल।
::हरे वन के कंठों में कहीं
::स्त्रोत बन जाते उज्ज्वल हार।
::पिघलकर चाँदी ही बन गई
::कहीं गंगा की झिलमिल धार।
::उतरती हरे खेत में इधर
::खींचकर संध्या स्वर्ण-दुकूल,
::व्योम की नील वाटिका-बीच
::उधर हँस पड़ते अगणित फूल।
::वन्य तृण भी तो पुलक-विभोर
::पवन में झूम रहे स्वच्छन्द;
::प्रकृति के अंग-अंग से अरे,
::फूटता है कितना आनन्द!
::देख मादक जगती की ओर
::झनकते हृत्तंत्री के तार,
::उमड़ पड़ते उर के उच्छ्वास,
::धन्य स्रष्टा ! तेरा व्यापार।
स्रष्टा धन्य, विविध सुमनों से सजी धन्य यह फुलवारी।
पा सकतीं क्या इन्द्रपुरी में भी आँखें यह छवि प्यारी?
फूलों की क्या बात? बाँस की हरियाली पर मरता हूँ।
अरी दूब, तेरे चलते जगती का आदर करता हूँ।
किसी लोभ से इसे छोड़ दूँ, यह जग ऐसा स्थान नहीं;
और बात क्या बहुधा मैं चाहता मुक्ति -वरदान नहीं।
इस उपवन की ओर न आऊँ, ऐसी मुक्ति न मैं लूँगा,
अपने पर कृतघ्नता का अपराध न लगने मैं दूँगा।
इच्छा है, सौ-सौ जीवन पा इस भूतल पर आऊँ मैं,
घनी पत्तियों की हरियाली से निज नयन जुड़ाऊँ मैं।
तरु के नीचे बैठ सुमन की सरस प्रशंसा गाऊँ मैं,
नक्षत्रों में हँसूँ, ओस में रोऊँ और रुलाऊँ मैं।
मेरे काव्य-कुसुम से जग का हरा-भरा उद्यान बने,
मेरे मृदु कविता भावुक परियों का कोमल गान बने।
विधि से रंजित पंख माँग मैं उड़-उड़ व्योम-विहार करूँ,
गगनांगन के बिखरे मोती से माला तैयार करूँ।
किसी बाल-युवती की ग्रीवा में वह हार पिन्हाऊँ मैं,
हरी दूब पर चंद्र-किरण में सम्मुख उसे बिठाऊँ मैं।
श्वेत, पीत, बैगनी कुसुम से मैं उसका शृंगार करूँ,
कविता रचूँ, सुनाऊँ उसको, हृदय लगाऊँ, प्यार करूं।
मलयानिल बन नव गुलाब की मादक सुरभि चुराऊँ मैं,
विधु का बन प्रतिबिम्ब सरित के उर-भीतर छिप जाऊँ मैं।
किरण-हिंडोरे पर चढ़कर मैं बढ़ूँ कभी अम्बर की ओर,
करूँ कभी प्लवित वन-उपवन बन खग की स्वर-सरित-हिलोर।
इच्छा है, मैं बार-बार कवि का जीवन लेकर आऊँ,
अपनी प्रतिभा के प्रदीप से जग की अमा मिटा जाऊँ।
नाथ, मुझे भावुकता-प्रतिभा का प्यारा वरदान मिले,
हरी तलहटी की गोदी में सुन्दर वासस्थान मिले।
उधर झरे भावुक पर्वत-उर से निर्झरिणी सुकुमारी,
शत स्त्रोतों में इधर हृदय से फूट पड़े कविता प्यारी।
::कुसुमों की मुसकान देखकर,
::उज्ज्वल स्वर्ण-विहान देखकर,
::थिरक उठे यह हृदय मुग्ध हो,
::बरस पड़े आनन्द;
::अचानक गूँज उठे मृदु छन्द,
::"मधुर कैसी है यह नगरी!
::धन्य री जगती पुलक-भरी!"
१९३१
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