भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
'''हाय दुर्दशा मानवता की'''
हाय दुर्दशा मानवता की
क्या से क्या रंग लायीं ?
जिनके सीने पर सो बीती
शैशव की दोपहरी ,
जिनके कंधें पर चढ फूटी
तुतलाती स्वर लहरी ,
उनको बोझ समझ बैठी
मन तनिक नहीं शरमायी। शरमायी ।
पले बढे जिनके हाथों से ,
खाकर नित्य निवाले निवाले।
जिनकी पूंजी से पढ लिखकर
हुये कमाने वाले ,
उनका तन ढकने को कपडें
लेने से सकुचायी सकुचायी।
जिनके अरमानें के संग संग
पल कर बडी हुयी थी ,
बैंयॉ बैंयॉ चनते चलते
उठकर खडी हुयी थी ,
उनके भूखे पेट रोटियां
देने से कतरायी।
हाय दुर्दशा मानवता की
क्या से क्या रंग लायीं ?
</poem>