भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान|संग्रह=टूटते तिलिस्म / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
घिरे अंधंरे में भी इसकी
चमक रही हैं आंखेआँखे,
जैसे रातों में दिखती हैं
तपती हुयी हुई सलाखें, धीरे -धीरे करती फिरती है नाखूनी वार ़ ।कोई दामन बचा न इससे , है कितनी खुंखार।ख़ूँखार । दीख रही इसकी आंखों मआँखों में
संम्मोहन की ज्वाला,
जिसकी ओर निहारा , उसको
अपने वश कर डाला,
चुपके चुपके घूम रही है सरे आम बाजार,सरेआम बाज़ार ।बैठी कभी तिजोरी घर में कभी सभा दरबार।दरबार । घूम रही अपने पांवों पाँवों मेंगूंगे घुंघरू बांधेघुँघरू बाँधे,बड़े बड़ेा बड़ों क दामन अपने,
पंजों के बल साधे,
बनते और बिगड़ते इसके दम पर कारोबार,
कितने हैं मजबूत मज़बूत इरादे कितने हैं दमदार।दमदार ।
</poem>