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Kavita Kosh से
<poem>
कली बिल्ली ढूँढ रही है, घर-घर आज शिकार ।
उसे नहीं इससे मतलब है कौन कहां कहाँ लाचार ।
घिरे अंधंरे अँधरे में भी इसकी
चमक रही हैं आँखे,
जैसे रातों में दिखती हैं
तपती हुई सलाखें,
धीरे-धीरे करती फिरती है नाखूनी नाख़ूनी वार ।
कोई दामन बचा न इससे, है कितनी ख़ूँखार ।