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अग्नि-संभवा / प्रतिभा सक्सेना

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कृष्ण ,मेरे मीत !
अग्नि संभव द्रौपदी मैं
खड़ी अविचल !
जल रही अनुताप में ,
उद्दीप्त पल-पल,
क्षुब्ध और! अशान्त !
तुम तपन झेलो ,न कोई और !
तुम शरण मेरी, न कोई और !
*
दौड़ आते तुम्हीं बारंबार
इस निर्वास- वन में
छोड़ अपना राजसुख- रनिवास !
धीर देने
बाँटने को भार मन का ,
प्रिय सखी के साथ !
तुम परम आत्मीय
मेरा हो न कोई और !
टेरता मन कह रहा ,
तुमसे मिले युग हो गये,
ओ,मीत मेरे !
तुम शऱण मेरी न कोई और !
*
बंधु प्रिय मेरे ,
सभी का एक माध्यम मै !
स्वत्व मेरा कुछ नहीं !
मैं बँटी हूँ !
जुड़ूँ किससे ?
अधूरी हूँ मैं सभी के साथ !
मन से रहूं किसके पास !
पति ,परस्पर बँधे बेबस ,
एक असमंजस कि
मैं हूँ डोर!
कौन है ,जो समझ ले मेरी व्यथा को ,
एक केवल तुम !
न कोई और !
तुम शऱण मेरी, न कोई और !
*
मीत ,हर सामर्थ्य मेरी ,बन गई उपभोग
दाँव पर मैं और कब से चल रहा यह खेल !
वे परम गंभीर,मृदु ,संयत ;
मुखर मैं ,कटु , असहनशील
सब स्वीकार !
किन्तु यह निर्लज्ज अत्याचार !
और वह क्षण दुसह दारुण भयावह
वह बीतता ही नहीं
बनता एक हाहाकार !
हो रहा अपमान औ' उपहास
पर वे सिर झुकाये साक्षी चुपचाप,
मिथ्यादर्श की ले आड़!
उस सामर्थ्य को धिक्कार !
नीति धर्म,विवेक सब बेकार !
किसे अब तक सके कभी उबार ?
सभी को रख दो ,सुरक्षित कर पिटारी बंद
खा जाये न चोट उनका धर्म पा कर वार!
इस विडंबन का कहाँ है पार !
सिर्फ़ तुमने ही उबारा !
तुम चुभन झेलो, न कोई और ,
तुम शऱण मेरी, न कोई और !
*
और तुम ?
जो सर्वथा ही भिन्न !
जीवन -सहजता के मंत्र !
कौन से तुमने नियम या नीति मानी ?
तोड़ सारी वर्जनायें
एक तुमने ही
स्वयं को साक्षी कर,
मानवी गरिमा न हो खंडित यहाँ
सब रीति मर्यादा बदल दी
और जीवन भर तुम्हीं ने ,
व्यर्थ के प्रतिबंध तोड़े,
छलों के अनुबंध तोड़े
सहज हो कर बहे युग - धारा
कि आरोपित सभी पाखंड तोड़े !
एक ही संबंध तुमसे ,
बस नहीं कुछ और !
तुम शऱण मेरी, न कोई और !
*
विगत और भविष्य तुम निर्बाध !
विषम ,अँधे क्षणों में लो साध,
सांत्वना के कुछ सहज उद्गार !
जब निराशा हो चरम तब तुम खड़े हो साथ
मीत मेरे , बस यही विश्वास !
नहीं दैहिक कामना कोई हमारे बीच,
और कुछ भी नहीं,
जो कुछ और !
तुम शऱण मेरी, न कोई और !
*
शब्द सीमित
अर्थ का विस्तार ,
तुम तक पहुँच जायेगा !
अजानी दूरियों को लाँघ
मेरा मौन भी कह बहुत जायेगा !
यही दृढ़ संबंध जो जोड़े हुये है
और कुछ भी नहीं
अपने बीच !
तुम्हीं से उन्मुख ,
न कोई और !
तुम शरण मेरी, न कोई और !
*
शब्द औ'संवेदना ही,
और निष्कृति भी तुम्हीं से 1
बस ,नहीं कुछ और !
तुम परम आत्मीय, सतत समीप ,
तुम तपन झेलो, न कोई और !
तुम शरण मेरी, न कोई और !
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