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|रचनाकार=दिनकर
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'''उत्तर में'''

तुम कहते, ‘तेरी कविता में
कहीं प्रेम का स्थान नहीं;
आँखों के आँसू मिलते हैं;
अधरों की मुसकान नहीं’।

::इस उत्तर में सखे, बता क्या
::फिर मुझको रोना होगा?
::बहा अश्रुजल पुनः हृदय-घट
::का संभ्रम खोना होगा?

जीवन ही है एक कहानी
घृणा और अपमनों की।
नीरस मत कहना, समाधि
है हृदय भग्न अरमानों की।

::तिरस्कार की ज्वालाओं में
::कैसे मोद मनाऊँ मैं?
::स्नेह नहीं, गोधूलि-लग्न में
::कैसे दीप जलाऊँ मैं?

खोज रहा गिरि-शृंगों पर चढ़
ऐसी किरणों की लाली,
जिनकी आभा से सहसा
झिलमिला उठे यह अँधियाली।

::किन्तु, कभी क्या चिदानन्द की
::अमर विभा वह पाऊँगा?
::जीवन की सीमा पर भी मैं
::उसे खोजता जाऊँगा।

एक स्वप्न की धुँधली रेखा
मुझे खींचती जायेगी,
बरस-बरस पथ की धूलों को
आँख सींचती जायेगी।

::मुझे मिली यह अमा गहन,
::चन्द्रिका कहाँ से लाऊँगा?
::जो कुछ सीख रहा जीवन में,
::आखिर वही सिखाऊँगा।

हँस न सका तो क्या? रोने में
भी तो है आनन्द यहाँ;
कुछ पगलों के लिए मधुर हैं
आँसू के ही छन्द यहाँ।

१९३४



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