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'''शब्दों की तरफ़ से'''
 
कभी कभी शब्दों की तरफ़ से भी
 
दुनिया को देखता हूँ ।
 
 
 
किसी भी शब्द को
 
एक आतशी शीशे की तरह
 
जब भी घुमाता हूँ आदमी, चीज़ों या सितारों की ओर
 
मुझे उसके पीछे
 
एक अर्थ दिखाई देता
 
जो उस शब्द से कहीं बड़ा होता है
 
 
 
ऐसे तमाम अर्थों को जब
 
आपस में इस तरह जोड़ना चाहता हूँ
 
कि उनके योग से जो भाषा बने
 
उसमें द्विविधाओं और द्वाभाओं के
 
सन्देहात्मक क्षितिज न हों, तब-
 
 
 
सरल और स्पष्ट
 
(कुटिल और क्लिष्ट की विभाषाओं में टूट कर)
 
अकसर इतनी द्रुतगति से अपने रास्तों को बदलते
 
कि वहाँ विभाजित स्वार्थों के जाल बिछे दिखते
 
जहाँ अर्थपूर्ण संधियों को होना चाहिए ।
 
 
 
00000000000
 
 
 
'''एक यात्रा के दौरान'''
 
 
 
'''(एक)'''
 
 
 
सफ़र से पहले अकसर
 
रेल-सी लम्बी एक सरसराहट
 
मेरी रीढ़ पर रेंग जाया करती है।
 
 
 
याद आने लगते कुछ बढ़ते फ़ासले-
 
जैसे जनता और सरकार के बीच,
जैसे उसूलों और व्यवहार के बीच,
 
जैसे सम्पत्ति और विपत्ति के बीच,
 
जैसे गति और प्रगति के बीच
 
 
 
घेरने लगती कुछ असह्य नज़दीकियाँ-
 
 
 
जैसे दृढ़ता और विचलन के बीच,
 
जैसे तेज़ी और फिसलन के बीच,
 
जैसे सफ़ाई और गन्दगी के बीच,
 
जैसे मौत और जिन्दगी के बीच ।
 
 
 
याद आते छोटे-छोटे स्टेशनों पर फैले
 
बीमार रोशनी के मैले मरियल उजाले,
 
गाड़ी छूटने का बौखलाहट–भरा वक़्त,
 
आरक्षण-चार्ट की अन्तिम कार्बन-कापी,
 
याद आती ट्रेन के इस छोर से उस छोर तक
 
बदहवास दौड़ती जनता अपने बीवी, बच्चों,
 
सामान, कुली और जेब को एक साथ संभाले....
 
 
 
'''(दो)'''
 
 
 
सुबह चार बजे मुझे एक ट्रेन पकड़ना है।
 
मुझे एक यात्रा पर जाना है।
 
मुझे काम पर जाना है।
 
 
 
मुझे कहाँ जाना है
 
दशरथ की पत्नियों के प्रपंच से बच कर ?
 
मुझ तरह तरह के कामों के पीछे
 
कहाँ कहाँ जाना है ?
 
कहाँ नहीं जाना है ?
 
 
 
'''(तीन)'''
 
 
 
एक गहरे विवाद में
 
फँस गया है मेरा कर्तव्य-बोध :
 
 
 
ट्रेन ही नहीं एक रॉकेट भी
 
पकड़ना है मुझे अन्तरिक्ष के लिए
 
ताकि एक डब्बे में ठसाठस भरा
 
मेरा ग़रीब देश भी
 
कह सके सगर्व कि देखो
 
हम एक साधारण आदमी भी
 
पहुँचा दिए गए चाँद पर
 
 
 
पृथ्वी के आकर्षण के विरुद्ध
 
आकाश की ओर ले जानेवाले ज्ञान के
 
हम आदिम आचार्य हैं ।
 
हमारी पवित्र धरती पर
 
आमंत्रित देवताओं के विमान :
 
 
 
न जाने कितनी बार हमने
 
स्थापित किए हैं गगनचुम्बी उँचाइयों के कीर्तिमान !
 
 
 
पर आज
 
गृहदशा और ग्रहदशा दोनों
 
कुछ ऐसे प्रतिकूल
 
कि सातों दिन दिशाशूल :
 
करते प्रस्थान
 
रख कर हथेली पर जान
 
चलते ज़मीन पर देखते आसमान,
 
काल-तत्व खींचातान : एक आँख
 
हाथ की घड़ी पर
 
दूसरी आँख संकट की घड़ी पर ।
 
न पकड़ से छूटता पुराना सामान,
 
न पकड़ में आता छूटता वर्तमान।
 
 
 
'''(चार)'''
 
 
 
घटनाचक्र की तरह घूमते पहिये :
 
वह भी एक नाटकीय प्रवेश होता है
 
चलती ट्रेन पकड़ने वक़्त, जब एक पाँव
 
 
 
छूटती ट्रेन पर और दूसरा
 
छूटते प्लेटफ़ार्म पर होता है
 
सरकते साँप-सी एक गति
 
दो क़दमों के बीच की फिसलती जगह में,
 
जब मौत को एक ही झटके में लाँघ कर
 
हम डब्बे में निरापद हो जाना चाहते हैं :
 
 
 
वह एक नया शुभारम्भ होता है किसी यात्रा का
 
भागती ट्रेन में दोनो पांव जब
 
एक ही समय में एक ही जगह होते हैं,
 
जब कोई ख़तरा नहीं नज़र आता
 
दो गतियों के बीच एक तीसरी संभावना का ।
 
भविष्य के प्रति आश्वस्त
 
एक बार फिर जब हम
 
दुश्चिन्तामुक्त समय में - स्थिर चित्त -
 
केवल जेब में रख्खे टिकट को सोचते हैं,
 
उसके या अपने कहीं गिर जाने को नहीं ।
 
 
 
'''(पाँच)'''
 
 
 
कभी कभी दूसरों का साथ होना मात्र
 
हमें कृतज्ञ करता
 
दूसरों के साथ होने मात्र के प्रति,
 
किसी का सीट बराबर जगह दे देना भी
 
हमें विश्वास दिलाता कि दुनिया बहुत बड़ी है,
 
जब अटैची पर एक हल्की-सी पकड़ भी
 
ज़िंदगी पर पकड़ मालूम होती है,
 
और दूसरों के लिए चिन्ता
 
अपने लिए चिन्ताओं से मुक्ति.....
 
 
 
'''(छह)'''
 
 
 
कुछ आवाज़ें ।
 
कोई किसी को लेने आया है ।
 
 
 
कुछ और आवाज़ें ।
 
कोई किसी को छोड़ने आया है।
 
किसी का कुछ छूट गया है।
 
छूटते स्टेशन पर
 
छूटे वक़्त की हड़बड़ी में ।
 
 
 
अब एक बज रहा स्टेशन की घड़ी में ।
 
 
'''(सात)'''
 
 
 
क्यों किसी की सन्दूक का कोना
 
अचानक मेरी पिण्डली में गड़ने लगा ?
 
क्यों मेरे सिर के ठीक ऊपर टिका
 
गिरने-गिरने को वह बिस्तर अखरने लगा ?
 
कौन हैं वे ?
 
क्यों मेरी चिन्ताओं का एक कोना
 
उनसे भरने लगा ?-
 
 
 
मेरी एक ओर बैठा वह
 
विक्षिप्त –सा युवक,
 
मेरी दूसरी ओर वह चिन्तित स्त्री,
 
अपने बच्चेको छाती से चिपकाये
 
दोनों के बीच मैं कौन हूँ --
 
केवल एक आरक्षित जगह का दावेदार ?
 
वह स्त्री और वह बच्चा
 
 
 
क्यों नहीं दो मनुष्यों के बीच
 
एक पूर्णतः सुरक्षित संसार ?
 
 
 
क्यों यह निरन्तर आने जाने का क्रम
 
अनाश्वस्त करता -
 
और उस पूरी व्यवस्था को ध्वस्त
 
जिस हम किसी तरह
 
दो स्टेशनों के बीच मान लेते हैं ?
 
जो अनायास मिलता और छूट जाता
 
क्यों ऐसा
 
मानो कुछ बनता और टूट जाता ?
 
 
 
'''(आठ)'''
 
 
 
शायद मैं ऊँघ कर
 
लुढ़क गया था एक स्वप्न में -
 
 
 
एक प्राचीन शिलालेख के अधमिटे अक्षर
 
पढ़ते हुए चकित हूँ कि इतना सब समय
 
कैसे समा गया दो ही तारीख़ों के बीच
 
कैसे अट गया एक ही पट पर
 
एक जन्म
 
एक विवरण
 
एक मृत्यु
 
और वह एक उपदेश-से दिखते
 
अमूर्त अछोर आकाश का अटूट विस्तार
 
जिसमे न कहीं किसी तरफ़
 
ले जाते रास्ते
 
न कहीं किसी तरफ़ बुलाते संकेत,
 
केवल एक अदृश्य हाथ
 
अपने ही लिखे को कभी कहता स्वप्न
 
कभी कहता संसार......
 
 
 
अचानक वह ट्रेन जिसमें रखा हुआ था मैं
 
और खिलौने की तरह छोटी हो गई,
 
और एक बच्चे की हथेलियाँ इतनी बड़ी
 
कि उस पर रेल-रेल खेलने लगे फ़ासले
 
बना कर छोटे बड़े घर, पहाड़, मैदान, नदी, नाले .....
 
उसकी क़लाई में बंधी पृथ्वी
 
अकस्मात् बज उठी जैसे घुँघरू
 
रेल की सीटी .....
 
 
 
'''(नौ)'''
 
 
 
शायद उसी वक़्त मैंने
 
गिरते देका था ट्रेन से दो पांवों की
 
और चौंक कर उठ बैठा था ।
 
पैताने दो पांव-
 
क्यों हैं यहां ? क्या करूं इनका ?
 
 
 
सोच रात है अभी,
 
सुबह उतार लूँगा इन्हें
 
अपने सामान के साथ ।
 
सुबह हुई तो देखा
 
कन्धों पर ढो रहे थे मुझे
 
किसी और के पाँव ।
 
 
 
हफ़्ते.....महीने....साल....
 
 
 
बीत गए पल भर में,
 
“पिता ? तुम ? यहां ?”
 
 
 
“मुझे चाहिए मेरे पाँव,....वापस करो उन्हें ।”
 
“नहीं,वे मेरे हैं : मैं
 
उन पर आश्रित हूँ।
 
और मेरा परिवार :
 
मैं उन्हें नहीं दे सकता तुम्हें !”
 
 
 
वे हँसने लगे, एक बेजान असंगत हँसी ।
 
कभी कभी किसी विषम घड़ी में हम
 
जी डालते हैं एक पूरा जीवन - एक पूरी मृत्यु --
 
एक पूरा सन्देह कि कौन चल रहा है
 
किसके पाँवों पर ?
 
 
'''(दस)'''
 
 
 
नींद खुल गई थी
 
शायद किसी बच्चे के रोने से
 
या किसी माँ के परेशान होने से
 
या किसी के अपनी जगह से उठने से
 
या ट्रेन की गति के धीमी पड़ने से
 
या शायद उस हड़कम्प से जो
 
स्टेशन पास आने पर मचता है.....
 
 
 
बाहर अँधेरा ।
 
भीतर इतना सब
 
एक मामूली-सी रोशनी में भी जगमग
 
जागता और जगाता हुआ ।
 
एक छोटा–सा प्लेटफ़ॉर्म सरक कर पास आता
 
सुबह की रोशनी में,
 
डब्बे में चढ़ते उतरते लोगों का ताँता
 
 
 
कोई जगह ख़ाली करता
 
कोई जगह बनाता ।
 
 
 
'''(ग्यारह)'''
 
 
 
बाहर किसी घसीट लिखावट में
 
लिखे गए परिचित यात्रा-वृत्तान्त के
 
फरकराते दृश्यों को बिना पढ़े
 
पन्नों पर पन्ने उलटती चली जाती रफ़्तार :
 
विवरण कहीं कहीं रोचक
 
प्लॉट अव्यवस्थित, उथले विचार, उबाऊ विस्तार !
 
 
 
भीतर एक डब्बे में खचाखच भरा
 
एक टुकड़ा भारतीय समाज
 
मानो कहानियों, फिल्मों, कॉमिक्स, अख़बार आदि से
 
लेकर बनाये गये चरित्रों का कोलाज ।
 
 
 
'''(बारह)'''
 
 
 
यहाँ और वहाँ के बीच
 
कहीं किसी उजाड़ जगह
 
अनिश्चित काल के लिए
 
खड़ी हो गई है ट्रेन ।
 
दूर तक फैली ऊबड़खाबड़ पहाड़ियाँ,
 
जगह जगह टेसू और बबूल की झाड़ियाँ,
 
काँस औऱ जँगली घास के झाड़झंखाड़,
 
जहाँ तहाँ बरसाती पानी के तलाब .....
 
वह सब जो चल रहा था
 
अचानक अकारण अमय कहीं रुक गया है
 
आशंका और उतावली के किसी असह्य बिन्दु पर ।
 
 
 
कुछ हुआ है जो नहीं होना चाहिए था
 
जो अकसर होता रहता है जीवन में ।
 
कौन थे वे जो होकर भी नहीं होते ?
 
ऐसा क्यों हुआ ? वैसा क्यों नहीं हुआ
 
जैसा होना चाहिए था ?
 
सवालों के एक उफान के बाद
 
अलग अलग अनुमानों में निथर कर
 
बैठ गई हैं उत्सुकताएँ ।
 
 
 
फिर चल पड़ती है ट्रेन एक धक्के से
 
घसीटती हुई अपने साथ
 
उस शेष को भी जो घटित होगा
 
कुछ समय बाद
 
कहीं और
 
किसी अन्य यहाँ और वहाँ के बीच
 
 
'''(तेरह)'''
 
 
 
धीमी पड़ती चाल ।
 
अगले ठहराव पर
 
उतर जाना है मुझे ।
 
एक सिहरन-सी दौड़ जाती नसों में ।
 
 
 
पहली बार वहाँ जा रहा हूँ ।
 
हो सकता है कोई लेने आये, या कोई नहीं
 
केवल एक सपाट प्लटफॉर्म मिले,
 
बर्फीली ठंढक, अँधेरे और अनिश्चय का
 
 
 
घना कोहरा : इतनी रात गये
 
एक बिल्कुल नयी जगह से नयी तरह
 
संबंध बनाता हुआ एक अजनबी ।
 
 
 
एक ख़ामोश-सी तैयारी है मेरे आसपास
 
जैसे यह मेरा घर था
 
और अब मैं उसे छोड़कर कहीं और जा रहा हूँ ।
 
 
 
'''(चौदह)'''
 
 
 
कुछ लोग मुझे लेने आये हैं ।
 
मैं उन्हें नहीं जानता :
 
जैसे कुछ लोग मुझे छोड़ने आये थे
 
जिन्हें मैं जानता था ।
 
 
 
ट्रेन जा चुकी है
 
एक अस्थायी भागदौड़ और अव्यवस्था बाद
 
प्लेटफ़ॉर्म फिर एक सन्नाटे में जम गया है ।
 
 
'''(पन्द्रह)'''
 
 
 
आश्चर्य ! वह स्त्री और बच्चा भी
 
अकेले खड़े हैं उधर ।
 
 
 
क्या मैं कुछ कर सकता हूँ उनके लिए ?
 
स्त्री मुझे निरीह आँखों से देखती है -
 
“वो आते होंगे, मेरे लिए भी ......”
 
 
 
कुछ दूर चल कर
 
ठहर गया हूं –
 
उसके लिए ?
 
या अपने लिए ?
 
देखता हूं उसकी आंखों में
 
जो घिर आई थी एक दुश्चिन्ता-सी
 
एक सरल कृतज्ञता में बदल जाती ।