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'''अगुरु-धूम'''

::कल मुझे पूज कर चढ़ा गया
::अलि कौन अपरिचित हृदय-हार?
::मैं समझ न पाई गृढ़ भेद,
::भर गया अगुर का अन्धकार।

::::[१]
श्रुति को इतना भर याद, भिक्षु
गुनगुना रहा था मर्म-गान,
"आ रहा दूर से मैं निराश,
तुम दे पाओगी तृप्ति-दान?
यह प्रेम-बुद्ध के लिए भीख,
चाहिए नहीं धन, रूप, देह,
मैं याच रहा बलिदान पूर्ण,
है यहाँ किसी में सत्य स्नेह?

::पुरनारि! तुम्हारे ग्राम बीच
::भगवान पडे हैं निराहार।"
::मैं समझ न पाई गूढ़ भेद,
::भर गया अगुरु का अन्धकार।

::::[२]
सिहरा जानें क्यों मुझे देख,
बोला, "पूजेगी आज आस;
पहचान गया मैं सिद्धि देवि!
हो तुम्हीं यज्ञ का शुचि हुताश।
मैं अमित युगों से हेर रहा,
देखी न कभी यह विमल कान्ति,
ऐसी स्व-पूर्ण भ्रू-बँधी तरी,
ऐसी अमेय, निर्मोघ शान्ति।

::नभ-सदृश चतुर्दिक तुम्हें घेर
::छा रहे प्रेम-प्रभु निराकार।"
::मैं समझ न पाई गूढ़ भेद,
::भर गया अगुरु का अन्धकार।::

::::[३]
अपनी छवि में मैं आप लीन
रह गई विमुख करते विचार,
‘वाणी प्रशस्ति की नई सीख
आया फिर कोई चाटुकार।’
पर, वीतराग-निभ चला भिक्षु
रचकर मेरा अर्चन-विधान;
कह, "चढ़ा चुका मैं पुष्प, अधिक
अब और सिद्धि क्या मूल्यवान?

::फिर कभी खोजने आऊँगा, पद
::पर जो रख जा रहा प्यार।"
::मैं समझ न पाई गूढ़ भेद,
::भर गया अगुरु का अन्धकार।

::::[४]
"अब और सिद्धि क्या मूल्यवान?"
मैं चौंक उठी सहसा अधीर;
फट गया गहन मन का प्रमाद,
आ लगा वह्नि का प्रखर तीर।
उठ विकल धूम के बीच दौड़
बोलूँ जब तक, "ठहरो किशोर!"
तब तक स्व-सिद्धि को शिला जान
था चला गया साधक कठोर।

::मैंने देखा वह धूम-जाल,
::मैंने पाया वह सुमन-हार;
::पर, देख न पाई उन्हें सजनि!
::भर गया अगुरु का अन्धकार।

::::[५]
तुम तो पथ के चिर पथिक देव!
कब ले सकते किस घर विराम?
मैं ही न हाय, पहचान सकी
करगत जीवन का स्वर्ण-याम।
है तृषित कौन? है जलन कहाँ?
मेघों को इसका नहीं ध्यान;
यह तो मिट्टी का भाग्य, कभी
मिल जाता उसको अमृत-दान।

::फिरना न कभी मधुमास वही
::शत हृदय खिलाकर एक बार;
::मैं समझ न पाई गूढ़ भेद,
::भर गया अगुरु का अन्धकार।

::::[६]
चरणों पर कल जो चढ़ा गए
तुम देव! हृदय का मधुर प्यार,
मन में, पुतली में उसे सज़ा
मैं आज रही धो बार-बार;
जो तुम्हें एक दिन देख नहीं
पाई अपने भ्रम में विभोर,
आकर सुन लो टुक आज उसी
पाषाणी का क्रन्दन किशोर!

::छिपकर तुम पूज गए उस दिन,
::छिपकर उस दिन मैं गई हार;
::पर छिपा सकेगा अश्रु-ज्योति
::भर गया अगुरु का अन्धकार?

::::[७]
कल छोड़ गए जो दीप द्वार पर,
उर पर वह आसीन आज;
साधना-चरण की रेणु-हेतु
है विकल सिद्धि अति दीन आज;
मन की देवी को फूल चढ़ा,
चाहिए तुम्हें कुछ नहीं और;
पर, विजित सिद्धि के लिए कहाँ
साधक-चरणों के सिवा ठौर?

::मैं भेद न सकती तिमिर-पुंज
::तुम सुन सकते न करुण पुकार;
::साधना-सिद्धि के बीच हाय,
::छा रहा अगुरु का अन्धकार।

::::[८]
मैं रह न गई मानवी आज,
देवी कह तुमने की न भूल;
अन्तर का कञ्चन चमक उठ,
जल गई मैल, झर गई धूल;
नव दीप्ति लिए नारीत्व जगा
यह पहन तुम्हारी विजय-माल;
कुछ नई विभा ले फूल उठी
जीवन-विटपी की डाल-डाल।

::देखे जग मुझमें आज स्त्रीत्व
::का महामहिम पूर्णावतार;
::मैं खड़ी, चतुर्दिक मुझे घेर
::छा रहा अगुरु का अन्धकार।

::::[९]
कल सौंप गए जो मुझे प्रेम,
देखो उसका शृंगार आज;
मैं कनक-थाल भर खड़ी, बुद्ध-
हित ले जाओ उपहार आज;
सब भूल गई, कुछ याद नहीं
तरुणी के मद की बात आज;
आओ, पग छू हो जाऊँगी
रमणी मैं रातों-रात आज।

::माँ की ममता, तरुणी का व्रत,
::भगिनी का लेकर मधुर प्यार,
::आरती त्रिवर्तिक सजा करूँगी
::भिन्न अगुरु का अन्धकार।

बह रही हृदय-यमुना अधीर
भर, उमड़ लबालब कोर-कोर,
आओ, कर लो नौका-विहार,
लौटो भिक्षुक, लौटो किशोर!



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