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Kavita Kosh से
आ जाओ, मैंने सुन ली तिरे ढोल की तरंग
आ जाओ, मस्त हो गई मेरे लहू की ताल
आ जाओ, मैंने धूल से माथा उठा लिया
आ जाओ, मैंने छील दी आँखों से ग़म की छाल
आ जाओ, मैंने दर्द से बाजू छुड़ा लिया
आ जाओ, मैंने नोच दिया बेकसी का जाल
पंजे में हथकड़ी की कड़ी बन गई है गुर्ज़<ref>गदा</ref>
गर्दन का तौक़ तोड़ के ढाली है मैंने ढाल
जलते हैं हर कछार में भालों के मिरग-नैन,
दुश्मन लहू से रात की कालिख हुई है लाल
धरती धड़क रही है मिरे साथ, ऐफ़्रीक़ा
दरिया थिरक रहा है तो बन दे रहा है ताल
मैं ऐफ़्रीक़ा हूँ, धार लिया मैंने तेरा रूप
मैं तू हूँ, मेरी चाल है तेरी बबर की चाल
'''मांटगोमरी जेल, 14 जनवरी 1955
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