'''पद 191 से 200 तक'''
तुलसी प्रभु (194)जे अनुराग न राम सनेही सों। तौ लह्यों लाहु कहा नर-देही सो। जो तनु धरि, परिहरि सब सुख, भये सुमति राम-अनुरागी। सो तनु पाइ अघाइ किये अघ, अवगुन-उदधि अभागी।। ग्यान, बिराग, जोग, जप, तप, मख, जग मुद-मग नहिं थोरे। राम-प्रेमबिनु नेम जाय जैसे मृग -जल-जलधि-हिलोरे।। लोक-बिलोकि, पुरान-बेद सुनि, समुझि-बूझि गुरू ग्यानी। प्रीति-प्रतीति राम-पद -पंकज सकल-सुमंगल-खानी।। अजहुँ जानि जिय, मानि हारि हिय, होइ पलक महँ नीको। सुमिरू सनेहसहित हित रामहिं, मानु मतो तुलसीको।।
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