भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
870 bytes added,
08:18, 10 मार्च 2011
'''पद 231 से 240 तक'''
तुलसी (235)ऐसेहि जनम-समूह सिराने। प्राणनाथ रघुनाथ-से प्रभु तजि सेवत चरन बिराने।। जे जड़ जीव कुटिल, कायर, खल, केवल कलिमल-साने। सूखत बदन प्रसंसत तिन्ह कहँ, हरितें अधिक करि माने।। सुख हित कोटि उपाय निरंतर करत न पायँ पिराने। सदा मलीन पंथके जल ज्यों, कबहूँ न हृदय थिराने।। यह दीनता दूर करिबेको अमित जतन उर आने। तुलसी चित-चिंता न मिटै बिनु चिंतामनि पहिचाने।।
</poem>
Mover, Reupload, Uploader