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जे अनुराग न राम सनेही सों।
 
तौ लह्यों लाहु कहा नर-देही सो।
 
जो तनु धरि, परिहरि सब सुख, भये सुमति राम-अनुरागी।
 
सो तनु पाइ अघाइ किये अघ, अवगुन-उदधि अभागी।।
 
ग्यान, बिराग, जोग, जप, तप, मख, जग मुद-मग नहिं थोरे।
 
राम-प्रेमबिनु नेम जाय जैसे मृग -जल-जलधि-हिलोरे।।
 लोक-बिलोकि, पुरान-बेद सुनि, समुझि-बूझि गुरू ग्यानी। ग्यानी
प्रीति-प्रतीति राम-पद -पंकज सकल-सुमंगल-खानी।।
 
अजहुँ जानि जिय, मानि हारि हिय, होइ पलक महँ नीको।
 
सुमिरू सनेहसहित हित रामहिं, मानु मतो तुलसीको।।
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