भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
'''पद 261 से 270 तक'''
(261) श्री मेरी न बनै बनाये मेरे कोटि कलप लौं, राम! रावरे बनाये बनै पल पाउ मैं । निपट सयाने हौ कृपानिधान! कहा कहौं? लिये बेर बदलि अमोल मनि आउ मैं।। मानस मलीन, करतब कलिमल पीन जीह हू न जप्यो नाम, बक्यो आउ-बाउ मैं। कुपथ कुचाल चल्यो, भयो न भूलिहू भलो, बाल-दसा हू न खेल्यो खेलत सुदाउ मैं।। देखा-देखी दंभ तें कि संग तें भई भलाई, प्रकटि जनाई, कियो दुरित-दुराउ मैं। राग रोष द्वेष पोषे, गोगन समेत मन, इनकी भगति कीन्हीं इनही को भाउ मैं। आगिली-पाछिली, अबहूँकी अनुमान ही तें। बूझियत गति, कछु कीन्हो तो न काउ मैं। जग कहै रामकी प्रतीति-प्रीति तुलसी प्रभु हू, झूठे -साँचे आसरो साहब रघुराउ मैं।। (263)श्री नाथ नीके कै जानिबी ठीक जन-जीयकी। रावरो भरोसो नाह कै सु-प्रेम-नेम लियो, रूचिर रहनि रूचि मति गति तीयकी।। कुकृत -सुकृत बस सब ही सों संग पर्यो, परखी पराई गति, आपने हूँ कीयकी।। मेरे भलेको गोसाईं! पेचको, न सोच -संक, हौहुँ किये कहौं सौंह साँची सीय-पीयकी।। ग्यानहू-गिराके स्वामी, बाहर-अंतरजामी, यहाँ क्यों दुरैगी बात मुखकी औ हीयकी? तुलसी तिहारो, तुमहीं पै तुलसीके हित, राखि कहौं हौं तो जो पै ह्वहौं माखी घीयकी।।
</poem>