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अपनी क़िस्मत पे नाज़ करते, ग़ुरूर होता
जो कभी तेरे गर उनके लबों से हमारा मज़कूर<ref>चर्चा</ref> होता
अगरचे हमने गरचे मैंने छुपाया था राज़े-दिल तुम से
डर था तेरी निगाह में यह ना क़ुसूर होता
तुमसे कुछ कहना था पर न कहा इसमें ख़ता हमारी मेरी थीबताता कहता दर्दे-हिज्र<ref>विरह का दर्द</ref> भी जो ना मजबूर होता
बद-क़िस्मती क़िस्सा-ए-इश्क़ मुख़्तसर<ref>संक्षिप्त</ref> था बहुत
इक और मोड़ होता तो ज़रा मशहूर होता
तुमने मुझे देखकर जाने क्या किस तरह सोचा होगाकाश मैं शक्ल से ख़ूबसूरत शक्लो-सूरत<ref>सुंदरता</ref> में थोड़ा और होता
ख़ुदाय, क्या हम ना पाते अपनी मोहब्बत कोगर अगर हमें अपनी वक़ालत का शऊर<ref>ढंग</ref> होता
हम-तुम मिल ही जाते सनम किसी मोड़ पर इक रोज़जो इश्क़ में आशिक़ों वस्लतो-क़ुर्ब</ref>मिलन और समीपता</ref> का मिलना दस्तूर होता
हैं आलम में वही रंग , नये-पुराने, यादों के
तुम भी होते परेशाँ तो मज़ा ज़रूर होता
बहुत तड़प-तड़प के मैंने यह ग़ज़ल लिखी हैकाश मेरी क़िस्मत में वह जमाले-हूर<ref>परी जैसी सुन्दरता वाली मेहबूबासुन्दर मेहबूब</ref> होता
पल-पल बिगड़ रहा है हाल तेरे बीमार का
ऐ ‘नज़र’ काश कि आज को वह मुझसे न दूर होता
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