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{{KKRachna
|रचनाकार=आलोक श्रीवास्तव-२
|संग्रह=जब भी वसन्त के फूल खिलेंगे / आलोक श्रीवास्तव-२
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<Poem>
सागर की ऊंची उठती लहरों के परिदृश्य में
हवाओं में उलझे बालों और पोशाक वाली
तुम्हारी जिस छवि ने
अपनी भव्य प्रतिमाएं गढ़ी थीं
मेरे दिलो-दिमाग़ में

वह अप्रतिम छवि
कहीं इस शहर में खोती गई है

ऐसे जर्जर होता है प्यार
बिला जाती है संवेदना

क्या बचता है प्यार के बाद?

ऐसा खालीपन?
ऐसी हताशा?

सागर तुम्हीं कहो
क्या झूठ था लहरों से रंग बनाता सूरज
दिल के गहन कोनों से उठी
किसी के अंग-अंग दुलराने की वह कामना
अपना ही रचा भ्रमजाल थी सिर्फ़?

सागर तुम्हीं कहो
जिन प्रवालों के संसार तुम्हारे भीतर छिपे हैं
जो गहरा उद्वेलन है
प्रशांत नीला वैराट्य
उसमें कोई भव्यता नहीं
कोई रोमांस, कोई कल्पना
दूर का कोई निमंत्रण नहीं?

सागर तुम्हीं कहो
तुम्हारी नीली लहरों में घुलती
वह छवि सिर्फ़ इसलिए वहां थी कि
एक दिन मेरे पास
उसकी एक कसक भरी याद बचे
और
यह ऐसा रीतापन?
</poem>
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