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Kavita Kosh से
बिम्ब को पीता हुआ
लगता यहाँ हर आइना है
सभ्यता के मोड़ पर
सहमी हुई मन की नदी है !
क़ैद पँखुड़ियाँ
इसी अफ़सोस में ही अनमनी हैं
फूल की तक़दीर में बस
डाल से टूटन बदी है !
दृष्टियों का अजनबीपन
हो रहा हर रोज़ गहरा
खोखलेपन के वज़न से
पीठ आदम की लदी है !
त्रासदी है !
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