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{{KKRachna
|रचनाकार=कुंवर नारायण
}}
<poem>
वह चित्र भी झूठा नहीं :
:::तब प्रेम बचपन ही सही
:::संसार ही जब खेल था,
:::तब दर्द था सागर नहीं,
:::लहरों बसा उद्वेल था;

पर रंग वह छूटा नहीं :
:::उस प्यार में कुंठा न थी
:::तुम आग जिसमें भर गए,
:::तुम वह जहाँ कटुता न थी
:::उस खेल में छल कर गए;

मैं हँस दिया, रूठा नहीं :
:::उस चोट के अन्दाज़ में
:::जो मिल गया, अपवाद था,
:::उस तिलमिलाती जाग में,
:::जो मिट गया, उन्माद था,

जो रह गया, टूटा नहीं :
:::अभाव के प्रतिरूप ही
:::संसृति नया वैभव बनी,
:::हर दर्द के अनुरूफ ही
:::सागर बना, गागर बनी,

कच्ची तरह फूटा नहीं :
:::खोकर हृदय उससे अधिक
:::कुछ आत्मा ने पा लिया,
:::विक्षोभ को सौन्दर्य कर
:::संसार पर बिखरा दिया :

दे ही गया, लूटा नहीं ।
</poem>
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