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{{KKRachna
|रचनाकार=ज़िया फतेहाबादी
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}}
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:नाला ए नारसा नहीं कुछ भी
:अब मुझे आसरा नहीं कुछ भी
:पूछते हैं वो क्या नहीं कुछ भी
:क्या कहूँ हौसला नहीं कुछ भी
:हो वफ़ा या जफ़ा मुहब्बत की
:इब्तदा इन्तेहा नहीं कुछ भी
:मैं हूँ किश्ती है मौज ए तूफाँ है
:साहिल ए नाख़ुदा नहीं कुछ भी
:रोज़ करते हैं यूँ जफ़ा मुझ पर
:जैसे मेरी वफ़ा नहीं कुछ भी
:गुफ़ता ए अक़ल कुछ तो है वरना
:जो जुनूँ ने कहा नहीं कुछ भी
:कट गई उम्र पा ए साक़ी पर
:तलखियों का गिला नहीं कुछ भी
:हो मेरी ख़ामुशी पे चींबजबीं
:अभी मैंने कहा नहीं कुछ भी
:आज़माईश अगर वफ़ा की न हो
:इम्तिहान ए वफ़ा नहीं कुछ भी
:मेरी दुनिया में क्यूँ सिवाए अजल
:ज़िन्दगी का सिला नहीं कुछ भी
:वादी ए ग़म में ला के छोड़ दिया
:अब खुला, रहनुमा नहीं कुछ भी
:ऐ " ज़िया " इन बुतों के इश्क़ में क्यूँ
: नारवा और रवा नहीं कुछ भी