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तुलना / दुष्यंत कुमार

133 bytes added, 05:13, 4 अप्रैल 2011
{{KKRachna
|रचनाकार=दुष्यंत कुमार
|संग्रह=जलते हुए वन का वसन्त / दुष्यंत कुमार
}}
{{KKCatKavita‎}}गडरिये <poem>गडरिए कितने सुखी हैं ।
न वे ऊँचे दावे करते हैं
 
न उनको ले कर
 
एक दूसरे को कोसते या लड़ते-मरते हैं।
 
जबकि
 
जनता की सेवा करने के भूखे
 सारे दल भेडियों से टूटते हैं।हैं ।
ऐसी-ऐसी बातें
 और ऐसे-ऐसे शब्द सामने रखते हैं 
जैसे कुछ नहीं हुआ है
 
और सब कुछ हो जाएगा ।
जबकि
 
सारे दल
 
पानी की तरह धन बहाते हैं,
 गडरिये मेडों गडरिए मेंड़ों पर बैठे मुस्कुराते हैं ... भेडों को बाड बाड़े में करने के लिए 
न सभाएँ आयोजित करते हैं
  न रैलियाँ, 
न कंठ खरीदते हैं, न हथेलियाँ,
 
न शीत और ताप से झुलसे चेहरों पर
 
आश्वासनों का सूर्य उगाते हैं,
 
स्वेच्छा से
जिधर चाहते हैं, उधर
भेड़ों को हाँके लिए जाते हैं ।
जिधर चाहते हैं ,उधर भेडों को हाँके लिए जाते हैं । गडरिये गडरिए कितने सुखी हैं ।</poem>
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