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कुंठा / दुष्यंत कुमार

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|रचनाकार=दुष्यंत कुमार
|संग्रह=सूर्य का स्वागत / दुष्यन्त दुष्यंत कुमार
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<poem>
मेरी कुंठा
रेशम के कीड़ों-सी
ताने-बाने बुनती,
तड़प तड़पकर
बाहर आने को सिर धुनती,
स्वर से
शब्दों से
भावों से
औ' वीणा से कहती-सुनती,
गर्भवती है
मेरी कुंठा –- कुँवारी कुंती !
मेरी कुंठा<br>रेशम के कीड़ों सी<br>ताने-बाने बुनती,<br>तड़फ तड़फकर<br>बाहर आने को सिर धुनती,<br>स्वर से<br>शब्दों से<br>भावों से<br>औ' वीणा से कहती-सुनती,<br>गर्भवती है<br>मेरी कुंठा – कुँवारी कुंती!<br><br> बाहर आने दूँ<br>तो लोक-लाज मर्यादा<br>भीतर रहने दूँ<br>तो घुटन, सहन से ज़्यादा,<br>मेरा यह व्यक्तित्व<br>सिमटने पर आमादा ।<br><br/poem>
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