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{{KKRachna
|रचनाकार=देवेन्द्र आर्य
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मौत भी जिंदगी सी हो जाए।
 
झूठ और सच का फ़र्क़ खो जाए।
 
तिश्ना लब के सिवाय कौन है जो
 
सुर्ख अहसास को भिगो जाए।
 
पिण्ड तो छूटे वर्जनाओं से
 
जो भी होना है आज हो जाए।
 
ऐसे मत मांग हाथ फैला के
 
हाथ में जो है वो भी खो जाए।
 
मैं तवायफ़ हूँ, बेहया तो नहीं
 
थोड़ी मोहलत दे, बच्चा सो जाए।
</poem>