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|रचनाकार=ज़िया फतेहाबादी
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इक क़यामत मेरी हयात बनी
गरमी ए बज़्म ए कायनात बनी
आशना ए सुकूँ थी ला इलमी
आगही फ़िक्र ए शशजहात बनी
मौत ने जब फ़ना की दी तालीम
वो घडी मुश्दा ए हयात बनी
मौसम ए बरशिगाल ख़ूब आया
इक दुल्हन सारी कायनात बनी
दामन ए ज़ब्त में सुकूँ पाया
शोर ओ शेवन से जब न बात बनी
फिर वही रात सुबह बनती है
जो सहर शाम हो के रात बनी
जब्र का सब तिलिस्म टूट गया
जब ईरादों की कायनात बनी
किस ज़मीं में ग़ज़ल कही है " ज़िया "
कि बनाए से भी न बात बनी ‎
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