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{{KKRachna
|रचनाकार=ज़िया फतेहाबादी
|संग्रह=
}}
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मेहर ए रोशन की आख़िरी किरणें
रक़स करती हैं काले बादल में
उन शुआओं से रंग गिरते हैं
और दोश ए हवा पे फिरते हैं
और बनाते हैं आसमाँ पे कमाँ
रंगज़ा, रंगबार ओ रंगअफ़शाँ
उस कमाँ से वो तीर आते हैं
जो नज़र की ख़लिश मिटाते हैं
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|रचनाकार=ज़िया फतेहाबादी
|संग्रह=
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मेहर ए रोशन की आख़िरी किरणें
रक़स करती हैं काले बादल में
उन शुआओं से रंग गिरते हैं
और दोश ए हवा पे फिरते हैं
और बनाते हैं आसमाँ पे कमाँ
रंगज़ा, रंगबार ओ रंगअफ़शाँ
उस कमाँ से वो तीर आते हैं
जो नज़र की ख़लिश मिटाते हैं