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'''लेखन वर्ष: 2005२००५/२०११'''
ज़िन्दगी से दर्द’ दर्द' दर्द से ज़िन्दगी मिली हैज़िन्दगी के इस वीराने में तन्हाई की धूप खिली है
मैं रेत की तरह बिखरा हुआ हूँ ज़मीन पर
उड़ता जा रहा चला हूँ उधर’ जिधर की हवा चली है
मैं जानता हूँ उसका चेहरा निक़ाब से ढका में हैमहज़ परवाने को लुभाने <ref>मात्र</ref> ख़ाबे-उन्स<ref>परिचय का स्वप्न</ref> के लिए शम्अ जली है
बदलता फेर लेता है वो रुख़ को <ref>चेहरा</ref> चाहो जिसे जान से ज़्यादाजाँ की तरहमेरी तो हर सुबह’ दोपहर’ शाम यूँ ही ढली है
आज देखा उसे उसको भी जिसे कल तक दोस्ती का पास थाआज देखकर उसने मुझे उसने अपनी ज़ुबाँ सीं ली है
बोलो ‘नज़र’ किसने पहचाना ‘नज़र’ तुम्हें भूलने के बादभूलकरअब तन्हा जियो तुमको ऐसी ये ज़िन्दगी भली है
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