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'''लेखन वर्ष: 2003'''
न रखो वह तस्वीरें हरी जिन से जिनसे दिल दुखता होकर दो वह ज़मीनें ज़मीन बंजर जिन में जिनमें घाव उगता हो
क्यों सीने में साँस लेवे दर्द किसी बेदर्द बे-दर्द कामिटा दो वह शोलएवो शोल:-ए-दाग़ भी कि जिससे दिल जलता हो
लुत्फ़ लो उस बात में जिसमें न हो माज़ी <ref>बीता समय</ref> की सदानोंच दो वह हर ख़ार जो उम्मीदों उम्मीद पर चुभता हो
रोशनी चाहिए हर क़दम पे हमें भी तुम्हें भी
जलाओ वह दिए वो दिये किसलिए जिनसे धुँआ उठता हो
आँच बटोरो ग़म पी जाओ ज़ीस्त <ref>जीवन</ref> को जीना सीखो जियो ‘वफ़ा’क्यों जोड़ो उस ख़ाब के टुकड़े जो ख़ुद को छलता हो
'''शब्दार्थ:ज़ीस्त: जीवन{{KKMeaning}}
''नोट'': इस ग़ज़ल में विनय प्रजापति का दूसरा तख़ल्लुस 'वफ़ा' इस्तेमाल हुआ है।
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