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{{KKRachna
|रचनाकार=तुलसीदास
}}{{KKCatKavita}}[[Category:लम्बी रचना]]{{KKPageNavigation|पीछे=विनयावली() * [[पद 121 से 130 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 121]]|आगे=विनयावली() * [[पद 121 से 130 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 142]]|सारणी=विनयावली() * [[पद 121 से 130 तक/ तुलसीदास / पृष्ठ 3]]}}<poem>'''* [[पद 121 से 130 तक'''/ तुलसीदास / पृष्ठ 4]] (* [[पद 121) श्री हे हरि! यह प्रभु की अधिकाई। देखत, सुनत, कहत, समुझत संसय-संदेह न जाई। जो जग मृषा ताप -त्रय- अनुभव होइ कहहु केहि लेखे। कहि न जाय मृगबारि सत्य, भ्रम ते दुख होइ बिसेखे।। सुभग सेज सोवत सपने, बारिधि बूड़त भय लागै। कोटिहूँ नाव न पार पाव सो, जब लगि आपु न जागै।। अनबिचार रमनीय सदा, संसार भयंकर भारी। सम-संतोष-दया-बिबेेक तें, ब्यवहारी सुखकारी।। तुलसिदास सब बिधि प्रपन्च जग, जदपि झूठ श्रुति गावै। रधुपति- भगति, संत-संतति बिनु, को भव-त्रास नसावै।। <से 130 तक /poem>तुलसीदास / पृष्ठ 5]]
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