भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
घुटने टेके खड़े नियन्ता
खड़े नियामक मौन
घात लगाये लगाए कुर्सी बैठे
टट्टू भाड़े वाले
अपनी बातो में वादों के
एक यही प्रश्नोत्तर
इतनी बड़ी हवेली आखिर आख़िर
कब किसने की खँडहर
बन-बबूल से हुए पराजित
लँगड़ा हाथी, टूटी ढालें
जंग जीतने चले समय की
लेकर थोथे नारे
घबरायी नजरों नज़रों से ताके
घिरी चिरैया सोन
घुटने टेके खड़े नियन्ता
खड़े नियामक मौन
</poem>