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जाको हरि दृढ़ करि अंग कर्यो।
सोइ सुसील, पुनीत , बेदबिद, बिद्या-गुननि भर्यो।1।
तुलसिदास रघुनाथ-कृपाको जोवत पंथ खर्यो।7।
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सोच सुकृती , सुचि साँचो जाहि राम ! तुम रीझे।
गनिका ,गीध,बधिक हरिपुर गये, लै कासी प्रयाग कब सीझे।1।
कबहुँ न डग्यो निगम-मगतें पग, नृग जग जानि जिते दुख पाये।
गजधौं कौन दिछित, जाके सुमिरत लै सुनाभ बाहन तजि धाये।2।
सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो।
मानत भलहि भलो भगतनितें, कछुक रीति पारथहि जनाई।
तुलसी सहज सनेह राम बस , और सबै जलकी चिकनाई।4।
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