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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=तुलसीदास}}{{KKCatKavita}}[[Category:लम्बी रचना]]{{KKPageNavigation|पीछे=पद 231 से 240 तक / तुलसीदास / पृष्ठ 4|आगे=|आगे=विनयावली() / तुलसीदास / पृष्ठ 25|सारणी=पद 231 से 240 तक / तुलसीदास}}<poem> '''पद संख्या 239 तथा 240''' (239)  
जाको हरि दृढ़ करि अंग कर्यो।
सोइ सुसील, पुनीत , बेदबिद, बिद्या-गुननि भर्यो।1।
तुलसिदास रघुनाथ-कृपाको जोवत पंथ खर्यो।7।
(240)
सोच सुकृती , सुचि साँचो जाहि राम ! तुम रीझे।
गनिका ,गीध,बधिक हरिपुर गये, लै कासी प्रयाग कब सीझे।1।
कबहुँ न डग्यो निगम-मगतें पग, नृग जग जानि जिते दुख पाये।
गजधौं कौन दिछित, जाके सुमिरत लै सुनाभ बाहन तजि धाये।2।
सुर-मुनि-बिप्र बिहाय बड़े कुल, गोकुल जनम गोपगृह लीन्हो।
मानत भलहि भलो भगतनितें, कछुक रीति पारथहि जनाई।
तुलसी सहज सनेह राम बस , और सबै जलकी चिकनाई।4।
 
</poem>
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