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{{KKRachna
| रचनाकार=रमा द्विवेदी
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दर्द देके वे हमें खुद ही दवा देते हैं,
रूठ जाने पे हमें खुद ही मना लेते हैं।

मेरी जो नाव है पतवार उसमें है ही नहीं,
डूब जाने पे हमें खुद ही बचा लेते हैं।

होगा अन्ज़ाम-ए-मोहब्बत क्या मालूम न था,
देके आवाज हमें खुद ही बुला लेते हैं।

दिल की तन्हाईयों में तेरे ख्वाब बुनते हैं,
अपने सपनों में हमें खुद ही बुला लेते हैं।

मिलन की चाह में दिन-रात हम तड़पते हैं,
इसी उम्मीद में हर दिन को बिता लेते हैं।

तेरी यादों के सिवा पास मेरे कुछ भी नहीं,
तेरे लिए तो हम हर ग़म को पचा लेते हैं।
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