भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna | रचनाकार=रमा द्विवेदी }} <poem> हे सृजनकर्ता, तूने यह कैसी दु…
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
| रचनाकार=रमा द्विवेदी
}}
<poem>
हे सृजनकर्ता,
तूने यह कैसी दुनिया बनाई,
आदमी, आदमी को खा रहा है,
जन्मदाता भी भक्षक बन रहा है.
मानवीय प्रकृति के समीकरण,
बड़ी तेजी से बदल रहे है,
संवेदनशीलता नए सांचे में ढ़ल रही है,
कलियों को खिलने से पहले ही,
मसला कुचला जा रहा है,
दहशत ही दहशत,
आंख के आंसू सूख चुके हैं,
वाणी मूक है, कान बहरे हो गए हैं,
किससे फ़रियाद करें?
जहां जाएं खूंख्वार भेड़िए ,
मांस खाने के लिए घात लगाए बैठे हैं,
शायद इसलिए ही वह,
कई नर्कों से बचने के लिए,
एक ही नर्क भोगने के लिए विवश है।
<poem>
{{KKRachna
| रचनाकार=रमा द्विवेदी
}}
<poem>
हे सृजनकर्ता,
तूने यह कैसी दुनिया बनाई,
आदमी, आदमी को खा रहा है,
जन्मदाता भी भक्षक बन रहा है.
मानवीय प्रकृति के समीकरण,
बड़ी तेजी से बदल रहे है,
संवेदनशीलता नए सांचे में ढ़ल रही है,
कलियों को खिलने से पहले ही,
मसला कुचला जा रहा है,
दहशत ही दहशत,
आंख के आंसू सूख चुके हैं,
वाणी मूक है, कान बहरे हो गए हैं,
किससे फ़रियाद करें?
जहां जाएं खूंख्वार भेड़िए ,
मांस खाने के लिए घात लगाए बैठे हैं,
शायद इसलिए ही वह,
कई नर्कों से बचने के लिए,
एक ही नर्क भोगने के लिए विवश है।
<poem>