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मैं तुम्हारे साथ हूँ
हर मोड़ पर संग-संग मुड़ा हूँ।
:: तुम जहाँ भी हो वहीं मैं,:: जंगलों में या पहाड़ों में,:: मंदिरों में, खंडहरों में,:: सिन्धु लहरों की पछाड़ों में, 
मैं तुम्हारे पाँव से
परछाइयाँ बनकर जुड़ा हूँ।
:: शाल-वन की छाँव में:: चलता हुआ टहनी झुकाता हूँ,:: स्वर मिला स्वर में तुम्हारे:: पास मृगछौने बुलाता हूँ, 
पंख पर बैठा तितलियों के
तुम्हारे संग उड़ा हूँ।
:: रेत में सूखी नदी की:: मैं अजन्ताएँ बनाता हूँ,:: द्वार पर बैठा गुफ़ा के:: मैं तथागत गीत गाता हूँ, 
बोढ के वे क्षण, मुझे लगता
कि मैं ख़ुद से बड़ा हूँ।
::इन झरोखों से लुटाता
::उम्र का अनमोल सरमाया,
::मैं दिनों की सीढ़ियाँ
::चढ़ता हुआ ऊपर चला आया,
हाथ पकड़े वक़्त की
मीनार पर संग-संग खड़ा हूँ।
इन झरोखों से लुटाता
उम्र का अनमोल सरमाया,
मैं दिनों की सीढ़ियाँ
चढ़ता हुआ ऊपर चला आया,
हाथ पकड़े वक़्त की
मीनार पर संग-संग खड़ा हूँ।
</poem>
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