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सुख / कीर्ति चौधरी

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ये पर्दे, यह खिड़की, ये गमले...
बदलता तो कुछ भी नहीं है ।
 
लेकिन क्या होता है
भेद सभी खोलेंगी ।
अनजाने होठों पर गीत आ जाता है ।
 
सुख क्या यही है ?
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